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५, ४, २६.)
कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा साधम्मियवज्जियक्खेत्ते समाचरेयव्वो। एत्थ उक्कस्सेण छम्मासक्खवणं पि उवइठें। एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि रिदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहराणं होदि।
__ मिच्छत्तं गंतूण ट्रियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसहहणा चेव सहहणं पायच्छित्तं*णाण-दसणचरित्त-तवोवयारभेएण विणओ पंचविहो। रत्नत्रयवत्सु नीचैवृत्तिविनयः। एदेसि विणयाणं लक्खणं सुगम ति ण भण्णदे। एदं विणओ णाम तवोकम्म।
व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। तं च वेज्जावच्चं दसविहं-आइरिय-उवज्शायसाहु-तवस्सि-सिक्खुवगिलाण-कुल-गण-संघ-मणुण्णवेज्जावच्चं चेदितत्थ कुलं पंचविह-पंचथूहकुलं गुहावासीकुलं सालमूलकुलं असोगवाड कुलं खंडकेसरकुलं। तिपुरिसओ गणो। तदुवरि गच्छो। आइरियादिगणपेरंताणं महल्लावईए णिवदिदाणं समूहस्स जं बाहावणयणं तं संघवेज्जावच्चं णाम । आइरियहि सम्मदाणं गिहत्थाणं दिक्खाभिमुहाणं वा जं कीरदे तं मणुण्णवेज्जावच्चं णाम। एवमेदं सव्वं पि वेज्जावच्चं णाम तवोकम्म।
आचरण करना चाहिये । इसमें उत्कृष्ट रूपसे छह मासके उपवासका भी उपदेश दिया गया है। ये दोनों ही प्रकारके प्रायश्चित्त राजाके विरुद्ध आचरण करनेपर नौ और दस पूर्वोको धार करनेवाले आचार्य करते हैं।
मिथ्यात्वको प्राप्त होकर स्थित हुए जीवके महाव्रतोंको स्वीकार कर आप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान करनेपर श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त होता है।
ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और उपचारके भेदसे विनय पांच प्रकारका है। रत्नत्रयको धारण करनेवाले पुरुषोंके प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है । इन विनयोंका लक्षण सुगम है, इसलिये यहां नहीं कहते हैं। यह विनय नामक तपःकर्म है ।
आपत्तिके समय उसके निवारणार्थ जो किया जाय वह वैयावृत्य नामका तप है। आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, शैक्ष, उपग्लान, कुल, गण, संघ और मनोज्ञोंकी वैयावृत्यके भेदसे वह वैयावृत्य तप दस प्रकारका है। उनमें कुल पांच प्रकारका है-पञ्चस्तूंप कुल, गुफावासी कुल, शालमूल कुल, अशोकवाट कुल और खण्डकेशर कुल । तीन पुरुषोंके समुदायको गण कहते हैं और इसके आगे गच्छ कहलाता है। महान् आपत्तिमें पडे हुए आचार्य से लेकर गण पर्यंत सर्व साधुओंके समूहकी बाधा दूर करना संघवैयावृत्य नामका तप है। जो आचार्यों द्वारा सम्मत हैं और जो दीक्षाभिमुख गृहस्थ हैं उनकी वैयावृत्य करना वह मनोज्ञवैयावृत्य नामका तप है। इस प्रकार यह सव वैयावृत्य नामका तप है।
तीर्थंकर-गणधर-गणि-प्रवचन-संघाद्यासादनकारकस्य नरेन्द्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्तदीक्षस्य नपकुलवनितासेवितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदुषकस्य पारचिकं प्रायश्चित्तं भवति । आचारसार प. ६४.*मिथ्यात्वं गत्वा स्थितस्य पुनरपि गृहीतमहाव्रतस्य आप्तागम-पदार्थानां श्रद्धानमेव प्रायश्चित्तम् । आचारसार. प. ६४. ॐ तत्त्वा. ९-२४. ताप्रतौ' महल्लावए' इति पाठः ।
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