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________________ ५, ५, १३. ) पडिअणुओगद्दारे दव्वपयडिपरूवणा (२०३ जा सा वव्वपयडी णाम सा दुविहा- आगमदो दवपयडी चेव पोआगमदो बव्वपयडी चेव ।। ११ ॥ __ आगमो गंथो सुदणाणं दुवालसंगमिदि एयट्ठो । आगमस्स दव्वं जीवो आगमदव्वं, सा चेव पयडी आगमवव्वपयडी। आगमदवपयडीदो अण्णा पयडी णोआगमदत्वपयडी णाम। जा सा आगमदो दवपयडी णाम तिस्से इमे अत्याधियाराठ्ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं ॥ १२ ॥ एवं णवविहो आगमो । एदेसि णवण्णं पिआगमाणं जहा वेयणाए सरूवपरूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। एदेसिमागमाणमुयजोगवियप्पपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि - ___जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहगा वा थय-थुइ-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया ।१३। एदेसिमट्टण्णं पि उवजोगाणं जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा । 'जे च अमी अण्णे एवमादिया ' एदेण संखाणियमो पडिसिद्धो त्ति बटुव्वो । . द्रव्यप्रकृति दो प्रकारको है- आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति ।१॥ ___आगम, ग्रन्थ, श्रुतज्ञान और द्वादशांग ये एकार्थवाची शब्द हैं। आगमका द्रव्य अर्थात् जीव आगमद्रव्य है, वही प्रकृति आगमद्रव्यप्रकृति है । तथा आगमद्रव्यप्रकृतिसे भिन्न प्रकृति नोआगमद्रव्यप्रकृति है। ___ जो आगमद्रव्यप्रकृति है उसके ये अर्थाधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ॥ १२॥ इस तरह नौ प्रकारका आगम है । इन नौ ही आगमोंके स्वरूपकी वेदनाखण्ड (कृतिअनुयोगद्वार सूत्र ५४ में जिस प्रकार प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ___ अब इन आगमोंके उपयोगरूप विकल्पका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं उनकी वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा होती है । तथा इनसे लेकर और भी उपयोग होते हैं । १३ ।। इन आठों ही उपयोगोंका कथन जिस प्रकार वेदनाखण्ड (कृतिअनुयोगद्वार सूत्र ५५) में किया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । 'इनसे लेकर और जितने हैं ' इस वचनके द्वारा संख्याके नियमका प्रतिषेध किया है, ऐसा जानना चाहिये । षट्वं. पु. ९, पृ. २५१.५ षटन पु, ९, पृ. २६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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