SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १४. अणुवजोगा वव्वे त्ति कटु जावदिया अणुवजुत्ता बन्वा सा सव्वा आगमदो दव्वपयडी णाम ॥ १४ ।।। __ जाणिदूण अणुवजोगा उवजोगवज्जिया परिसा दव्वमिदि काऊण जावदिया अणुवजुत्ता दवा सयला वि आगमदो दव्वपयडी णाम। जा सा णोआगमदो दवपयडी नाम सा दुविहा- कम्मपयडी चेव णोकम्मपयडी चेव ॥ १५ ॥ ___ एवं दुविहा चेव णोआगमदवपयडी होदि, ण तिविहा; कम्म-गोकम्मवदिरित्तस्स गोआगमदव्वस्स अणवलंभादो। जा सा कम्मपयडी णाम सा थप्पा ॥ १६ ॥ स्थाप्या । कुदो? बहुवण्णणिज्जतादो। जा सा णोकम्मपयडी णाम सा अणेयविहा ॥ १७ ॥ कुदो ? अणेयाणं णोकम्मपयडीणं उवलंभादो । तं जहा - .. घड-पिढर-सरावारंजणोलंचणादीणं विविहभायणविसेसाणं ___ अनुपयुक्त द्रव्य ऐसा समझकर जितने अनुपयुक्त द्रव्य है यह सब आगमद्रव्यप्रकृति है। जानकर अनुपयुक्त अर्थात् उपयोगरहित पुरुष द्रव्य है, ऐसा समझकर जितने अनुपयुक्त द्रव्य हैं वह सब आगमद्रव्यप्रकृति कहलाती है । विशेषार्थ - पहले आगमका अर्थ श्रुतज्ञान और उसका आधारभूत द्रव्य जीव बतला आर्य हैं । यह विवक्षित विषयको जानकर जब तक उसके उपयोगसे रहित होता है तब तक उस विषयकी अपेक्षा इसकी आगमद्रव्य संज्ञा होती है। द्रव्यमें पर्याय अविवक्षित रहती है, इसलिये इसे प्रकृत विषयके उपयोगसे रहित बतलाया है । यहां आगमद्रव्यप्रकृतिका प्रकरण है । इसलिये प्रकृतिविषयक शास्त्रका जानकार किन्तु उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यप्रकृति है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । नोआगमद्रव्यप्रकृति दो प्रकारको है- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति ॥ १५ ॥ इस प्रकार नोआगमद्रव्यप्रकृति दो प्रकारकी ही होती है, तीन प्रकारकी नहीं होती; क्योंकि, कर्म और नोकर्मके सिवा अन्य नोआगमद्रव्य नहीं उपलब्ध होता । जो नोआगमकर्मद्रव्यप्रकृति है उसे स्थगित करते हैं ॥ १६॥ वह स्थाप्य अर्थात् स्थगित करने योग्य है, क्योंकि उसके विषयमें बहुत वर्णन करना है। जो नोआगमद्रव्यप्रकृति है वह अनेक प्रकारको है ॥ १७ ॥ क्योंकि, अनेक नोकर्मप्रकृतियां उपलब्ध होती हैं । यथाघट, थाली, सकोरा या पुरवा, अरंजण और उलुंचण आदि विविध भाजन प्रतिषु ' पिडर' इति पाठ [ पिठर: स्थाल्यां ना क्लीबं मुस्ता-मन्थानदण्डयोः । मेदिनी. पिठरं मथि मुस्तके । उखायां च "l अनेकार्थसंग्रह ३-६१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy