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________________ ५, ५, १२०. ) पर्य अणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८१ यत्तदो । ण च उवमेयस्स उवमाणसण्णा असिद्धा, अग्गिसमाणमणुअम्मि, अग्गिववएसुवलंभादो । के वि आइरिया एवं भणति जहा पणदालीसजोयणलक्खाणं रज्जुपदरस्स य अद्धच्छेद ए* कवे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अद्धच्छेदाणि लब्भंति । जत्तियाणि एवाणि अद्धच्छेदणाणि तत्तियमेत्ता मणुसगइपाओग्गाणुपुविवियप्पा होंति त्ति । एत्थ उवदेसं लद्धूण एवं चैव वक्खाणं सच्चमण्णं असच्चमिदि जिच्छओ कायन्वो । एवे च दो वि उवएसा सुत्तसिद्धा । कुदो ? उवरि दो वि उवदेसे अस्सिदृण अप्पा बहुगपरूवणादो । विरुद्वाणं दोष्णमत्थाणं परूवयं कथं सुत्तं होदित्ति वृत्ते - सच्चं जं सुत्तं तमविरुद्धत्थपरूवयं चेव । किंतु णेदं सुतं सुत्तमिव सुत्तमिवि एक्स्स उवयारेण सुत्तत्तन्भुवगमादो। किं पुण सुत्तं ? सुतं गणहरकहियं तव पत्तेयबुद्ध कहियं च । सुदवणा कहियं अभिण्णदसपुव्विकहियं च ॥ ३४ ॥ ण च भूतबलिमडारओ गणहरो पत्तेयबुद्धो सुदकेवली अभिण्णदसपुथ्वी वा जेणेवं सुत्तं होज्ज । जवि एवं सुत्तं ण होदि तो सव्वमप्यमाणत्तं किं ण पसज्जदे ? ण, एगुद्देसम्मि आती है । उपमयेकी उपमान संज्ञा असिद्ध है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अग्नि के समान मनुष्यकी अग्नि संज्ञा देखी जाती है । कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि पैंतालीस लाख योजनों और राजुप्रतरके अर्द्धच्छेद करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र अर्द्धच्छेद उपलब्ध होते है । और जितने ये अर्द्धच्छेद होते हैं उतने ही मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं। यहांपर उपदेशको प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, क्योंकि, अन्य व्याख्यान असत्य है; ऐसा निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि, आगे दोनों ही उपदेशोंका आश्रय करके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है । शंका - विरुद्ध दो अर्थोका कथन करनेवाला सूत्र कैसे हो सकता है ? समाघान यह कहना सत्य है, क्योंकि, जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थका ही प्ररूपण करनेवाला होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं हैं, क्योंकि, सूत्रके समान जो होता है वह सूत्र कहलाता है, इस प्रकारसे इसमें उपचार सूत्रपनासे स्वीकार किया है । शंका- तो फिर सूत्र क्या है ? -- समाधान " जिसका गणधरने कथन किया हो, उसी प्रकार जिसका प्रत्येकबुद्धोंने कथन किया हो, श्रुतकेवलियोंने जिसका कथन किया हो, तथा अभिन्नदशपूर्वियोंने जिसका कथन किया हो; वह सूत्र है । ३४ । परन्तु भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं, और न अभिन्नदशपूर्वी ही हैं; जिससे कि यह सूत्र हो सके । " शंका - यदि सूत्र नहीं है तो सबके अप्रमाण होनेका प्रसंग क्यों न प्राप्त होगा ? ताप्रती ' अद्धच्छेदणाए ' इति पा । * ताप्रती असंखे० भागमेत्ताणि अद्धछेदणाणि तत्ति - पमेत्ता इति पाठः+अ-आ-काप्रतिष् 'परूवणं इति पाठ: । XXX भ. आ ३४. मूला. ५, ८०. अ आ-काप्रतिषु कोष्ठकस्थोऽयं पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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