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________________ ३८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १२०. ___ संपहि एत्थ उडकवाडछेदणविहाणं वच्चदे । तं जहा- सत्तरज्ज़रुंदंतम्मि दोसु वि पासेसु तिण्णि-तिण्णिरज्जआयामेण एगरज्जविक्खंभेण उकवाडं छत्तव्वं । पुणो पणदालीसजोयणलक्खस्सेहं मोत्तण हेट्टा उरि च मज्झिमवेसे उनकवाडं छिदिवव्वं । पुणो मुह १ भूमि ५ विसेसो ४ उच्छंय ३ मजिदो वडिपमाणं होदि । एदीए वड्ढीए पणवालीसजोयणलक्खेसु वडिदखेत्तं दोसु वि पासेसु अवणेदव्वं । एवमुकवाडच्छेदेणेण पणवालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियवपराणि णिप्फण्णाणि । एदेण लोगो मज्झपदेसे विक्खंभायामेहि एगरज्जुमेत्तो होदूण हेट्ठा उरिं च वडणाणो गदो त्ति जो लोगोवदेसो* सो फेरिदो, तत्थ उडुट्टियकवाडमंठागाभावावो । तुम्मे हि वृत्तलोगो वि उड्डकवाडसंठाणो ण* होदि, वढि हाणीहि गवबाहल्लत्तादो त्ति वुत्तेण, सव्वप्पणा सरिसविट्ठताभावादो। भावे वा चंदमही कण्णे तिर ण घडदे, चंदम्मि भ-महक्खि-णासादीणमभावादो।। के वि आइरिया उडमुवरि त्ति भगति, दो वि पासाणि कवाडमिदि भणंति । एदेसि छेदेण पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लतिरियपदराणं णिप्पत्ति- परवेंति। तण्ण घडदे दोण्णं पासाणं कवाडमिवि सण्णाभावादो। ण च अप्पसिद्धं वोत्तुं जुत्तं, अव्ववत्था __ अब यहां ऊर्ध्वकपाट अर्थात् लोककी छेदनविधि कहते हैं । यथा- सात राजु प्रमाण चौडाईमेंसे दोनों ही पार्श्व भागोंमें तीन-तीन राजु आयाम रूपसे और एक राजु विष्कम्भ रूपसे ऊर्ध्वकपाट अर्थात् लोकका छेदन करना चाहिए । पुनः पैंतालीस लाख योजन उत्सेधको छोडकर नीचे व ऊपर मध्यभागमें ऊर्ध्वकपाटका छेदन करना चाहिए । पुनः मुख एक राजु और भूमि ५ राज, इनका अन्तर ४ राज, इसमें उत्सेध राजका भाग देनेपर वृद्धिका प्रमाण होता है । इस वृद्धिके प्रमाणसे पैंतालीस लाख योजनोंमें बढे हुए क्षेत्रको दोनों ही पाश्व भागोंमेंसे अलग कर देना चाहिए । इस प्रकार ऊर्ध्वकपाटका छेदन करनेसे पतालोस है योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतर निष्पन्न होते हैं । इस कथनसे ' लोक मध्य भागमें विष्कम्भ और आयाम रूपसे एक राजु प्रमाण हो करके नीचे और ऊपर वृद्धिंगत होकर गया है' ऐसा जों लोकका उपदेश है वह खण्डित हो जाता है, क्योंकि, उसमें ऊर्ध्वस्थित कपाटके संस्थानका अभाव है। यहां शंकाकार कहता है कि तुम्हारे द्वारा कहा गया लोक भी ऊर्ध्वकपाटके संस्थानरूप नहीं होता है, क्योंकि, उसका बाहल्य वृद्धि और हानिको लिए हुए है । सो उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, दृष्टांत सर्वात्मना सदृश नहीं पाया जाता । यदि कहो कि सर्वात्मना सदृश दृष्टांत होता है तो ' चन्द्रमुखी कन्या' यह घटित नहीं हो सकता, क्योंकि, चन्द्रम भ्रू. मुख, आंख और नाक आदिक नहीं पाए जाते । कितने ही आचार्य 'ऊर्ध्व' का अर्थ 'ऊपर ' ऐसा कहते है और दोनों ही पार्श्व कपाट हैं, ऐसा कहते हैं। वे इनके छेदनसे पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंकी निप्पत्ति कहते हैं । परन्तु यह घटित नही होता, क्योंकि, दोनों पाश्र्वोको 'कपाट' यह संज्ञा नहीं है । और जो बात अप्रसिद्ध है उसका कथन करना उचित नहीं है, क्योंकि, इससे अव्यवस्थाकी आपत्ति *ताप्रती · त्ति लोगोवदेसो ' इति पाठः। काप्रती ' संठाणेण', ताप्रती ' संठाणे (णो) ण इति पाठः ताप्रती ' चंदमुहीकरणेत्ति ' इति पाठः [ ताप्रती णिप्पण्णं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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