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________________ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्झाणावट्ठाणकालादो संखेज्जगुणकालमवढाणं होदि, वीयरायपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेण संचालाभावादो । उवसंतकसायज्झाणस्स पुधत्तविदक्कवीयारस्स अंतोमुहुत्तं चेव अवट्ठाणमुवलब्भदि त्ति चे-ण एस दोसो, वीयरायत्ताभावेण तविणासुववत्तीदो। अत्थदो अत्यंतरसंचालो उवसंतकसायज्झाणस्स उवलब्भदि त्ति चे-ण, अत्यंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण ज्झाणविणासाभावादो। वोयरायत्ते संते वि खीणकसायज्झाणस्स एयत्तवियक्कावीचारस्स विणासो दिस्सदि त्ति चे-ण, आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जाएसु उवजुत्तस्स केवलोवजोगस्स एगदम्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावं ठूण तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो। तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकाल-चिरकालावट्ठाणेण य दोणं ज्झाणाणं सिद्धो भेओ। सकसायतिण्णिगुणट्ठाणकालादो उवसंतकसायकालो संखेज्जगुणहीणो,तदो वीयरायज्झाणावट्ठाणकालो संखेज्जगुणो त्ति ण घडदे? ण, एगवत्थुम्हि अवट्ठाणं पडुच्च तदुत्तीए। एत्थ गाहाओ परन्तु शुक्ल ध्यानके एक पदार्थ में स्थित रहने का काल धर्मध्यानके अवस्थानकालसे संख्यातगुणा है, क्योंकि, वीतराग परिणाम मणिकी शिखाके समान बहुत कालके द्वारा भी चलायमान नहीं होता। शंका- उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका अवस्थान अन्तर्मुहूर्त काल ही पाया जाता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वीतरागताका अभाव होनेसे उसका विनाश बन जाता है। शंका- उपशान्त कषाय के ध्यानका अर्थसे अर्थान्तर में गमन देखा जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अर्थान्तरमें गमन होनेपर भी एक विचारसे दूसरे विचारमें गमन नहीं होनेसे ध्यानका विनाश नहीं होता । शंका- वीतरागताके रहते हुए भी क्षीणकषायमें होनेवाले एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानका विनाश देखा जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आवरणका अभाव होनेसे केवली जिनका उपयोग अशेष द्रव्यपर्यायों में उपयुक्त होने लगता है, इसलिये एक द्रव्यमें या एक पर्याय में अवस्थानका अभाव देखकर उस ध्यानका अभाव कहा है। इसलिये सकषाय और अकषाय रूप स्वामीके भेदसे तथा अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थित रहने के कारण इन दोनों ध्यानोंका भेद सिद्ध है। शंका- कषायसहित तीन गुणस्थानोंके कालसे चूंकि उपशान्तकषाय का काल संख्यातगुणा हीन है, इसलिये वीतरागध्यानका अवस्थान काल संख्यातगुणा है; यह बात नहीं बनती? समाधान- नहीं, क्योंकि, एक पदार्थ में कितने काल तक अवस्थान होता है, इस बात को देखकर उक्त बात कही है। इस विषय में गाथायें * आ-ताप्रत्योः ‘संचागाभावादो' इति पाठ। आप्रतौ ‘विणासो दि त्ति', ताप्रतौ 'विणासो (हो) दि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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