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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २६. अंतोमुहुत्तमेत्तं चितावत्थाणमेगवत्थुम्हि । छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु ॥ ५१ ।। अंतोमुहुत्तपरदो चिता-ज्झाणंतरं व होज्जाहि।
सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे ज्झाणसंताणो० ॥ ५२ ।। एदम्हि धम्मज्झाणे पोय-पउम-सुक्कलेस्साओ तिण्णि चेव होंति, मंद-मंदयरमंदतमकसाएसु एदस्स ज्झाणस्स संभवुवलंभादो। एत्थ गाहा*
होंति कविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पउम-सुक्काओ ।
धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदादिभेयाओ ।। ५३ ।। एसो धम्मज्झाणे परिणमदि त्ति कधं णव्वदे ? जिण-साहुगुणपसंसण-विणयदाण-संपत्तीए । एत्थ गाहाओ
आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तल्लिगं ।। ५४ ।। जिण-साहुगणुक्कित्तण-पसंसणा-विणय दाणसंपण्णा । सुद-सील-संजमरदा धम्मज्ज्ञाणे मुणयव्वा ।। ५५ ।।
एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ताका अवस्थान होना छद्मस्थोंका ध्यान है और योगनिरोध जिन भगवान्का ध्यान है ।। ५१ ॥
अन्तर्मुहुर्तके बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होनेपर भी एक ही ध्यानसन्तान होती है ।। ५२ ।।
इस धर्मध्यानमें पीत, पद्म और शुक्ल, ये तीन ही लेश्यायें होती हैं, क्योंकि, कषायोंके मन्द, मन्दतर और मन्दतम होनेपर धर्मध्यानकी प्राप्ति सम्भव है। इस विषयमें गाथा -
धर्मध्यानको प्राप्त हुए जीवके ते व्र-मन्द आदि भेदोंको लिये हुए क्रमसे विशुद्धिको प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यायें होती हैं ।। ५३ ।।
शंका- यह धर्मध्यानमें परिणमता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- जिन और साधुके गुणोंकी प्रशंसा करना, विनय करना और दानसम्पत्तिसे जाना जाता है। इस विषयमें गाथायें हैं
आगम, उपदेश और जिनाज्ञाके अनुसार निसर्गसे जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये पदार्थोंका श्रद्धान होता है वह धर्मध्यानका लिंग है ।। ५४ ।।
जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत शील और संयममें रत होना, ये सब बातें धर्मध्यानमें होती हैं; ऐसा जानना चाहिये ।। ५५ ॥
8ताप्रती 'संताणे' इति पाठः । अ-आप्रत्यो: 'धम्मज्झाणस्स ' इति पाठः । * अ-आप्रत्यो: 'गाहाओ' इति पाठः। 8 अ-आप्रत्योः 'जिणप्पणेयाणं' इति पाठः। - अप्रतौ 'गणक्कित्तण' इति पाठः ।
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