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५,५,४६. )
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पडअणुओगद्दारे अक्ख रपमाणपरूवणा तेसि मक्खर संजोगाणं गणिदे गगणाए एसा गाहा होदि । ' संजोगावरणट्ठ, अक्खरसंजोगावरणपमाणाणयणदृमिदि वृत्तं होदि । ' चउट्ठ थावए' अक्खराणं चखिं तेहितो धभावेण कव्विय विरलेदूण कम्मभूमीए बुद्धीए वा ठावए * । एत्थ चउसद्विअक्खरट्ठवना एसा अ आ आ३ । इ ई ई ३ । उ ऊ ऊ३ । ऋ ऋ ऋ३ । लृ ऌ ॡ३ । ए ए ए३ । ऐ ऐ ऐ३ । ओ ओ ओ३ । औ औ औ३ । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व । शषसह । क पअं अ: । एदेसि अक्खराणं मज्झे कँ खँ गँ घ ङ एदाओ पंच वि धारणाओ कि गहिदाओ ? ण, सरविरहिय - कवग्गाणुसारिसंजोग म्हि समुप्पण्णाणं धारणाणं * संजोगक्खरेसु पवेसादो । दुवे रासि ' एदेसिमक्खराणं संखं रास दुवे विरलिय दुर्गाणिदमण्णोष्णेण संगुणे अण्णोष्णसमभासो एत्तियो होदि१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ । एदम्मि संखाणे रूवणे कदे संजोगक्खराणं गणिदं होदिति णिद्दिसे । संपहि चउसट्ठिअक्खरसंखं विरलिय विगुणिदं वग्गिय +
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उन अक्षरसंयोगों की गणना करनेके लिये यह गाथा आई है ।' संयोगावरणों के लिये ' इस पदका तात्पर्य है- अक्षरसंयोगावरणोंका प्रमाण लानेके लिये । 'चउसट्ठि थावए इसका तात्पर्य है कि अक्षरोंकी चौंसठ संख्याकी उनसे पृथक् रूपसे कल्पना कर और उसका विरलन कर कर्मभूमि ( क्रियास्थल ) में या बुद्धि में स्थापित करे ।
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यहां चौंसठ अक्षरों की स्थापना इस प्रकार है- अ आ आ३, इ ई ई३, उ ऊ ऊ३, ऋ ऋ३, लृ ऌ ॡ३, ए ए२ ए३, ऐ ऐ२ ऐ३, ओ ओर ओ३, ओ और औ३, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह, क प अं अः ।
शंका- इन अक्षरों में कँ खँ गँ घूँ ङ इन पांच धारणाओंका क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान
नहीं, क्योंकि, स्वररहित कवर्गका अनुसरण करनेवाले संयोगमें उत्पन्न हुई धारणाओं का संयोगाक्षरों में अन्तर्भाव हो जाता हैं ।
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' दुवे रासि' इस पदका अभिप्राय है कि इन अक्षरोंकी संख्याकी राशि प्रमाण २ का विरलन कर परस्पर गुणा करनेपर परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त हुई राशि इतनी होती है- १८४४६७४४०७३०९५५१६१६ | इस संख्या में से एक कम करनेपर संयोगाक्षरोंका प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश करना चाहिये ।
अब चौंसठ अक्षरोंकी संख्याका विरलनकर और उसे द्विगुणित कर वर्गित संवर्गित करनेपर
पाठ । प्रतिषु दीरणाणं ' इति पाठ: 16 एक च च य छस्सत्तयं सुण णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च 1 गो. जी, ३५४
* आ-काप्रत्योः ' रावए, ताप्रती ' रा ( था ) वए इति पाठः । अ-ताप्रत्यो: ' धीरणाओ' इति च च य सुण्णऽसत्त-तिय- सत्ता 1 प्रतिषु ' वग्गियं ' इति पाठः ।
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