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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तेत्तीसवंजणाई सत्तावीसं हवंति सव्वसरा।
चत्तारि अजोगवहा एवं चउसट्ठि वण्णाओ।११। एकमात्रो हृस्वः, द्विमात्रो दीर्घः, त्रिमात्रः प्लतः, मात्रार्द्ध व्यंजनम् । अत्र श्लोकः
__एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं त्वर्द्धमात्रकम् । १२ । एदेहि चउसद्विअक्सरेहितो चउसट्रिसुदणाणवियप्पा होति । तेसिमावरणाणं पि चउसट्रिपमाणं होदि । जावदियाणि अक्खराणि त्ति एदस्स अत्थो परूविदो। जावदिया अक्खरसंजोगा त्ति एक्स्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा- एदेसि चउसट्ठिअक्खराणं जत्तिया संजोगा तत्तियमेत्ता वा सुदणाणवियप्पा होति । एत्थ वासद्दो वियप्पत्थे वटुव्वो । तेण जत्तियाणि अक्खराणि तत्तियमेत्ता सुदणाणवियप्पा होति, चउसद्विअवखरेहितो पूधभूदअक्खरसंजोगाभावादो। अक्खरसंजोगमेत्ता वा सुदणाणवियप्पा होति, अक्खरसंजोहितो पुधभूदच उसट्ठिअक्खराणमभावादो। एदेसि चउसटुिअक्खराणं संजोगक्खरपमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं
तेसिं गणिदगाधा भवदिसंजोगावरणढें चउछि थावए दुवे रासि ।
अण्णोण्णसमन्मासो रूवणं णिहिसे गणिवं ॥ ४६ ॥ तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर और चार अयोगवाह इस प्रकार कुल वर्ण चौंसठ होते हैं । ११॥
एक मात्रावाला वर्ण हृस्व होता है, दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तीन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है, और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यंजन होता है । इस विषयमें एक श्लोक है
एक मात्रावाला हस्व कहलाता है, दो मात्रावाला दीर्घ कहलाता है, तीन मात्रावाला प्लुत जानना चाहिये और व्यंजन अर्ध मात्रावाला होता है । १२ ।।
इन चौंसठ अक्षरोंसे चौंसठ श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं और उनके आवरणोंका प्रमाण भी चौंसठ होता है। इस प्रकार 'जितने अक्षर होते हैं, ' इसके अर्थकी प्ररूपणा की है। अब जितने अक्षरसंयोग होते हैं ' इस वचनका अर्थ कहते हैं । यथा- इन चौंसठ अक्षरोंके जितने संयोग होते हैं उतने' मात्र श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं। यहां 'वा' शब्द विकल्परूप अर्थमें जानना चाहिये । इसलिए जितने अक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं, क्योंकि चौंसठ अथरोंसे पृथग्भत अक्षरसंयोग नहीं पाये जाते। अथवा अक्षरोंके संयोगमात्र श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं, क्योंकि, अक्षरसंयोगोंसे पृथग्भत चौंसठ अक्षर नहीं पाये जाते। इन चौंसठ सयोगाक्षरोंका प्रसाण बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है
उनकी गणित गाथा है- संयोगावरणोंको लानेके लिए चौंसठ संख्याप्रमाण दो राशि स्थापित करे। पश्चात् उनका परस्पर गुणा करके जो लन्ध आवे उसमेसे एक कम करनेपर कुल संयोगाक्षर होते हैं । ४६ ।
गो. जी. ३५२. 8 अप्रती 'णिद्देसणे', आ-काप्रत्योः ‘णिद्देसेण' इति पाठ.16 चउसट्रिपद विरलिय दुगं च दाऊण संगणं किच्चा। रूऊणं च कुए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ।। गो. जी. ३५३.
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