SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ५, ४५. पर्याअणुओगद्दारे सुदणाणवरणीयपरूवणा ( २४७ देसामासियभावमावण्णेण सूचिदस्स असद्दलिंगजसुदणाणस्स परूवणा किष्ण कीरदे ? बहुत्तभेण दमेहाविजणाणुग्गहट्ठे च ण कीरदे । सुवणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ ॥ ४४ ॥ कुदो ? सज्झिमसंखेवसमासयणादो । तासि पयडीणं संखेज्जत्तपटुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा ।। ४५ ।। जादियाणि अक्खराणि तावदियाणि चैव सुदणाणाणि, एगेगक्खरादो एगेगसुदणाणुत्पत्तीए । एत्थ ताव अक्खरपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा- वग्गक्खरा पंचवीस, अंतस्था चत्तारि, चत्तारि उम्हाक्खरा, एवं तेत्तीसा होंति वंजणाणि ३३ । अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स- दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्तावीस होंति । एचां हृस्वा न सन्तीति चेत्- न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । अजगवाहा अं अः प इति चत्तारि चेव होंति । एवं सव्वक्खराणि चउसट्ठी ६४ । एत्थ गाहा क शंका- देशामर्शकभावको प्राप्त हुए इस सूत्र द्वारा अशब्दलिंगज श्रुतज्ञानका भी सूचन होता है, इसलिये यहां उसका कथन क्यों नहीं करते ? समाधान- ग्रन्थके बढ जानेके भयसे और मन्दबुद्धि जनोंका उपकार करने के अभि-प्राय से यहां अशब्दलिंगज श्रुतज्ञानका कथन नहीं करते । श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी संख्यात प्रकृतियां हैं ॥ ४४ ॥ क्योंकि यहां मध्यम संक्षेपका आश्रय लिया गया है । अब उन प्रकृतियोंकी निश्चित संख्याका ज्ञान कराने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं जितने अक्षर हैं और जितने अक्षरसंयोग हैं उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियां हैं ।। ४५ ।। जितने अक्षर है उतने ही श्रुतज्ञान हैं, क्योंकि एक एक अक्षरसे एक एक श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है । अब यहां अक्षरोंके प्रमाणका कथन करते हैं । यथा वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और उष्माक्षर चार इस प्रकार तेतीस व्यंजन होते हैं । अ, इ, उ, ऋ, लृ ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग अलग -हस्व, दीर्घ और प्लुत के भेदसे सत्ताईस होते हैं । शंका- एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ और औ इनके हस्व भेद नहीं होते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नही आता । अयोगवाह अं, अः, क और प ये चार ही होते हैं । इस प्रकार सब अक्षर चौंसठ ६४ होते हैं । इस विषय में गाथा * पत्तेयमक्खराई अक्खरसंजोगा जत्तिया लोए | एवइया सुयनाणे पयडीओ होंति नायव्वा । 1 वि भा. ४४४ ( नि. १७) ताप्रती ' + क' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy