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२४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ५, ४३. वत्, लोहलेख्यं वज्रं पार्थिवत्वात घटवत इत्यादीनि साधनानि* विलक्षणान्यपि न साध्यसिद्धये भवन्ति । विश्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात, वर्द्धते समुद्रश्चन्द्रवृद्धयन्यथानुपपत्तः, चन्द्रकान्तोपलास्रवत्युदकं चन्द्रोदयान्यथानुपपत्तः, उदेष्यति रोहिणी कृतिको दयान्यथानुपपत्तेः, म्रियते राजा रात्राविन्द्रचापोत्पत्यन्यथानुपपत्तेः, राष्ट्रभंगः राष्ट्राधिपतेर्मरणं वा प्रतिमारोदनान्यथानुपपत्तेः, इत्यादीनि साधनानि अविलक्षणान्यपि साध्यसिद्धये प्रभवन्ति । ततः इदमन्तरेण इदमनुपपन्नमितीदमेकमेव लक्षणं लिंगस्येति प्रत्येतव्यम् । अत्र श्लोकः
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १० ॥ नात्र तादात्म्य तदुत्पत्त्यन्यतरनियमोऽपि, व्यभिचारात्। स च सुगम इति नेह प्रपंच्यते। शेषं हेतुवादेषु दृष्टव्यम् । एत्थ सलिगजसुदणाणपरूवणा कीरदे । एदेण लोहलेख्य वज्रमय है, क्योंकि वह पार्थिव है, यथा घट। इत्यादिक साधन तीन लक्षणवाले होकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं होते । इसके अतिरिक्त विश्व अनेकान्तात्मक है, क्योंकि, वह सत्स्वरूप है । समद्र बढता है, अन्यथा चन्द्रकी वृद्धि नहीं बन सकती । चन्द्रकान्त मणिसे जल झरता है, अन्यथा चन्द्रोदयकी उपपत्ति नहीं बन सकती। रोहिणी उदित होगी, अन्यथा कृत्तिकाका उदय नहीं बन सकता। राजा मरनेवाला है, अन्यथा रात्रिमें इन्द्रधनुष्यकी उत्पत्ति नहीं बन सकती । राष्ट्रका भंग या राष्ट्र के अधिपतिका मरण होगा, अन्यथा प्रतिमाका रुदन करना नहीं बन सकता । इत्यादिक साधन तीन लक्षणोंसे रहित होकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ हैं । इसलिये ' इसके विना यह नहीं हो सकता' यही एक लक्षण लिंगका जानना चाहिए। इस विषयमें एक श्लोक है
जहां अन्यथानुपपत्ति है वहां पक्षसत्वादि उन तीनके होनेसे क्या मतलब अर्थात् कुछ भी नहीं, और अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां उन तीनके होनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा अर्थात कुछ भी नहीं । १०।।
__ यहां तादात्म्य और तदुत्पत्ति इनमें से किसी एक का नियम मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर व्यभिचार दोष आता है। वह सुगम है, इसलिये यहां उसका कथन नहीं करते । शेष कथन हेतुवादके प्रतिपादक ग्रन्थों में देखना चाहिये। यहां शब्दलिंगज श्रुतज्ञानका कथन करते हैं
*प्रतिषु 'साधनादीनि इति पाठः। 8 अ-आ-काप्रतिषु 'इदमनतरेण', ताप्रती ' इदम तरेण ( मंतरेण ) ' इति पाठ . दृष्टव्यास्त्यत्र पण्डितमहेन्द्रकुमारन्यायाचार्येण लिखिता न्यायकुमुदचन्द्रप्रस्तावना ( प ७३-७६. ) पण्डितदरबारीलालन्यायाचार्येण सम्पादिता न्यायदीपिका च (पृ. ९४, टि. ७) 3 तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धेऽप्यविनाभावादेव गमकत्वम् । तदभावे वात्व-सत्पुत्रत्वादेस्तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धे सत्यप्यसर्वज्ञत्वे श्यायत्वे च साध्ये गमकत्वाप्रतीते । तदभावेऽपि चाविनाभावप्रसादात्कृत्तिकोदय- चन्द्रोदयोगहीताण्डकपिपीलिकोत्सर्पणकाम्रफलोपलभ्यमानमधररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रम शकटोदय-समानसययसमुद्रवृद्धि-भाविवृष्टि-समसमयसिन्दूरारूणरुपस्वभावेसु साध्येषु गमकत्वप्रतीतेश्च । प्र. क. मा. पृ. ११०.
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