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________________ ( ३८३ ५, ५, १२२. ) पर्या अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जविभागमेत्तेहि ओगाहणवियहि गुणिवाओ । एवडियाओ पयडीओ ॥ १२२ ॥ ' तिरियपदराणि ' त्ति पुव्वं णवुंसयलगेण निद्देसं काऊण पच्छा 'गुणिदाओ त्ति सिमिथि लगेण णिद्देसो ण जुज्जदे, भिण्णाहियरणत्तादो ? ण एस दोसो, तिरिपदराणं पर्याsत्ति विवक्खाए इथिलगत्तुवलंमादो । उस्सेहघणंगुलस्स संखेज्जवि - भागमेत सव्वज हण्णो गाहणाए देवगडं गच्छ माणस्स सित्थमच्छस्स एगो देवगदिपाओगाणुपुव्विवियप्पो लम्भदि । पुणो तीए चेव सव्वजहण्णोगाहणाए अलद्धपुब्वेण महागारेण देवगई गच्छमाणस्स सित्थमच्छस्स बिदियो देवग दिपाओग्गाणपुव्विवियप्पो लब्भदि । मुह सरीरं, तस्स आगारो संठाणं त्ति घेत्तव्वं । अत्र श्लोक: मुखमर्द्ध शरीरस्य सर्वं वा मुखमुच्यते । तत्रापि नासिका श्रेष्ठा नासिकायाश्च चक्षुषी । ३५ । एवं पुणो पुणो अलद्धपुण्वमहागारेण देवे सुप्पज्जमानसित्थमच्छाणं णवजोयण सदबाहल्लाणं तिरियपदराणं जतिया आगासपदेसा तत्तिया चेव सव्वजहगोगाहणमस्सिदृण देवगइपाओग्गाणुपुविणामाए उत्तरोत्तरपयडिलब्भंति 1 पहि पदेसुत्तरसव्वजहण्णो गाहणाए जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं । १२२ । वियप्पा शंका - तिरियपदराणि ' इस प्रकार पहिले नपुंसकलिंग रूपसे निर्देश करके पश्चात् गुणिदाओ' इस प्रकार उनका स्त्रीलिंग रूपसे निर्देश करना योग्य नहीं है, क्योंकि, इस इनका भिन्न अधिकार हो जाता हैं ? 'प्रकारसे " 'समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तिर्यक्प्रतरोंकी ' प्रकृति' ऐसी विवक्षा होनेपर स्त्रीलिंगपना उपलब्ध हो जाता है । उत्सेध घनांगुलके संख्यातवें भागमात्र सर्वजघन्य अवगाहनाके द्वारा देवगतिको जानेवाले सिक्थ मत्स्यके एक देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प प्राप्त होता है । पुनः उसी सर्वजघन्य अवगाना के द्वारा अलब्धपूर्व मुखाकारके साथ देवगतिको जानेवाले सिक्थ मत्स्यके दुसरा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी विकल्प प्राप्त होता है। मुखका अर्थ शरीर हैं, उसका आकार अर्थात् संस्थान, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस विषय में श्लोक है शरीर के आधे भागको मुख कहते है, अथवा पूरा शरीर ही मुख कहलाता है । उसमें भी नासिका श्रेष्ठ है और नासिकासे भी दोनों आंखे श्रेष्ठ हैं । ३५ । इस प्रकार पुन: पुन: अलब्धपूर्व मुखाकारके साथ देवों में उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंके नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने ही सबसे जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । अब एक प्रदेश अधिक सबसे जघन्य अवगाहनामें भी इतने ही प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । तातो 'जोयण ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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