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________________ ३८४ ) छक्खंडागमे वग्गणाडंखं (५, ५, १२३. वि एत्तिया चेव वियप्पा लब्भंति । एवं दुपदेसुत्तरसम्वजहण्णोगाहणप्पहुडि णेदव्वं जाद सव्वुक्कस्समहामच्छोगाहणे ति। संपहि एगोगाहणवियप्पस्स जदि णवजोयण सदबाहल्लतिरियपदरमेत्ता देवदिपाओग्गाणव्विवियप्पा लब्भंति तो संखेज्जघणंगलमेत्तोगाहणमेत्तवियप्पाणं केवडिए देवगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पे लभामो ति सयलोगाहणवियप्पेहि णवजोयण*सदबाहल्लतिरियपदरेसु गणिदेसु देवगइपाओग्गाणपुविणामाए उत्तरोत्तरपयडिसव्ववियप्पा होति । *एत्थ अप्पाबहुगं ।। १२३ ।। किमट्टमेदं कीरदे? पयडीणं थोव-बहुत्तजाणावणळं, अण्णहा अणुत्तसमाणत्तप्पसंगादो। ___ सव्वत्थोवाओ गिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ ॥ कुदो ? सूचिअंगुलस्स असंखेज्जविभागबाहल्लतिरियपदरेसु गिरएसुप्पज्जमाणजीवाणमोगाहणट्टाणेहि गुणिदेसु तासि पमाणुप्पत्तीदो। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ असंखेज्जगु-- णाओ ॥ १२५ ।। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, हेट्टिमतिरियपदरस्स उरिमतिरियपदरं सरिसं, हेटिमओगाहणटाणेहि उवरिमओगाहणढाणाणि सरिसाणि त्ति अवणिय इस प्रकार दो प्रदेश अधिक सर्वजघन्य अवगाहनासे लेकर सबसे उत्कृष्ट महामत्स्यकी अवगाहना तक ले जाना चाहिए। अब यदि एक अवगाहनाविकल्पके नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरप्रमाण देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होते हैं तो संख्यात घनांगुलमात्र अवगाहनाविकल्पोंके कितने देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार समस्त अवगाहनाविकल्पोंके द्वारा नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंको गुणित करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामक प्रकृतिके सब उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । अब यहां अल्पबहुत्व कहते हैं ॥ १२३ ॥ शंका-- यह किसलिए कहा जा रहा है ? समाधान--- प्रकृतियोंके अल्प-बहुत्वका ज्ञान कराने के लिए, क्योंकि, अन्यथा अनुक्तके समान होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । नरकगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां सबसे स्तोक हैं ॥ १२४ ॥ क्योंकि, नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके अवगाहनास्थानोंसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंको गुणित करनेपर उनका प्रमाण उत्पन्न होता है ! देवतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं ॥ १२५ ॥ यहांपर गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, अधस्तन तिर्यप्रतरसे उपरिम तिर्यक्प्रतर सदृश है तथा अधस्तन अवगाहनास्थानोंसे उपरिम अवगाहनास्थान ताप्रतो 'जोजण ' इति पाठः। * काप्रती 'णयजोयण ', ताप्रती 'णवयोजण' इति पाठः। * ताप्रतौ सूत्रमिदं कोष्ठक () स्थमस्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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