SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ५, १२७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८५ हेट्ठिमअंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण णवजोयणसदे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो । हेट्ठिमसूचिअंगुलस्स पल्लस्स असंखेज्जदिभागो अवहारो होदि त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। एदेण णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पेसु गुणिदेसु देवगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा होति । मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ संखेज्ज - गुणाओ ॥ १२६ ॥ एत्थ गुणगारो संखेज्जाणि रूवाणि, हेटिमतिरियपदरेण उवरिमतिरियपदरं सरिसं ति अवणिय हेटिमओगाहणट्टाणेहिंतो उवरिओगाहणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि त्ति ताणि वि अवणिय हेट्ठिमणवजोयणसदेण उवरिमपणदालीसजोयणसदसहस्सेसु ओवट्टिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो । एदेहि संखेज्जरूवेहि देवगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पेसु गुणिदेसु मणुसगदिपाओग्गाणुपुग्विवियप्पा होति । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ असंखेज्जगणाओ ।। १२७ ॥ एत्थ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? हेटिमओगाहणाणेहि उवरिमओगाहणढाणाणि सरिसाणि त्ति अवणिय पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लतिरियपदरेण समान है, इसलिए इनको छोडकर अधस्तन अंगुलके असंख्यातवें भागका नौ सौ योजनमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । शंका-- अधस्तन सूच्यंगुलका पल्योपमका असंख्यातवां भाग अवहार है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--- यह सूत्रसे अविरुद्ध कथन करनेवाले आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। इससे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्पोंके गुणित करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं। उनसे मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां संख्यातगुणी हैं ।१२६। यहांपर गुणकार संख्यात अंकप्रमाण है, क्योंकि, उपरिम तिर्यप्रतर अधस्तन तिर्यक्प्रतरके समान है, इसलिए उसे छोडकर तथा अधस्तन अवगाहनास्थानोंसे उपरिम अवगाहनास्थान विशेष अधिक हैं, इसलिए उन्हें भी छोडकर अधस्तन नौ सौ योजनका उपरिम पैंतालीस लाख योजनमें भाग देनेपर संख्यात अंक उपलब्ध होते हैं । इन संख्यात अंकोंसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्पोंको गुणित करनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं । उनसे तिर्यंचगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां असंख्यातगणी हैं।१२७। यहांपर गुणकार श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाग है, क्योंकि, पिछले अवगाहनास्थानोंसे अगले अवगाहनास्थान समान हैं, इसलिए उन्हें छोडकर पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप 8 प्रतिषु — असंखेज्ज ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy