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________________ २१६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, २२ जं तमाभिणिबोहियणाणावरणीयं णाम कम्मं तं चउन्विहं वा चउवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसविविधं वा णादवाणि भवंति ॥ २२ ॥ 'जं तं आभिणिबोहियणाणावरणीयं कम्मं तं चउव्विहं वा' इच्चेवमादिसु सुत्तावयवेसु पुत्वमेगवयणणिद्देसं काऊण पुणो0 पच्छा ‘णादव्वाणि भवंति' त्ति बहुवयणणिद्देसो ण घडदे, समाणाहियरणाभावादो? ण, दम्वट्टियणयमरलंबिय एयत्तमुवगयस्स कम्मस्स पज्जवट्टियणयावलंबणेण चउविहादिभेदमुवगयस्स बहुत्तं पडि विरोहाभावादो । चउविहादिभेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि - चउन्विहं ताव ओग्गहावरणीयं ईहावरणीयं अवायावरणीयं धारणावरणीयं चेदि ॥ २३ ।। ___ तत्थ जं तं चउव्विहमाभिणिबोहियणाणावरणीयं तस्स ताव अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा- विषय-विषयिसंपातसमनन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । रसादयोऽर्थाः विषयः, षडपोन्द्रियाणि विषयिणः, ज्ञानोत्पत्तः, पूर्वावस्था विषय-विषयिसंपातः ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्युपलक्षितः अन्तर्मुहर्तकालः दर्शनव्यप - आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म चार प्रकारका, चौबीस प्रकारका, अट्ठाईस प्रकारका और बत्तीस प्रकारका जानना चाहिये ॥ २२ ॥ __ शंका- 'जं तं आभिणिबोहियणाणावरणीयं कम्मं तं चउविहं वा' इत्यादि सूत्रके अवयवोंमें पहले एकवचनका निर्देश करके पश्चात् ‘णादव्वाणि भवति ' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश करना घटित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों वचनोंमें समान अधिकरणका अभाव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुआ कर्म पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा चार भेद आदि अनेक भेदोंको प्राप्त है । इसलिये उसे बहुत माननेमें कोई विरोध नहीं आता। ____ अब चतुर्विध आदि भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं चार भेद यथा- अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय ।। २३ ॥ पहले जो चार प्रकारका आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म कहा है उसके अर्थका कथन करते हैं । यथा - विषय और विषयीका सम्पात होनेके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। रस आदिक अर्थ विषय हैं, छहों इन्द्रियां विषयी हैं, ज्ञानोत्पत्तिकी पूर्वावस्था विषय व विषयीका संपात (संबन्ध) है जो दर्शन नामसे कहा जाता है । यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके करणभूत परिणामविशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहुर्त काल स्थायी है। इसके बाद जो वस्तुका प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा-चक्षुके द्वारा 8 प्रतिषु ‘मणो ' इति पाठः । षट्ख. पु. १, पृ ३५४. पु. ९, पृ. १४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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