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________________ ५, ५, २३. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणावरणपरूवणा (२१७ दवभाक् तदनन्तरमाद्यं वस्तुग्रहणमवग्रहः, यथा चक्षुषा घटोऽयं पटोऽयमिति । यत्र घटादिना विना रूपदिशाकारादिविशिष्टं वस्तुमात्रं परिच्छिद्यते ज्ञानेन अनध्यवसायरूपेण तत्राप्यवग्रह एव, अनवगृहीतेऽर्थे ईहाद्यनुत्पत्तः। एवं शेषेन्द्रियाणामप्यवग्रहो वक्तव्यः । एतस्य अवग्रहस्य यदावारकं कर्म तदवग्रहावरणीयम् । अवगृहीते अर्थे तद्विशेषाकांक्षणमीहा । एषा अनध्यवसायस्वरूपावग्रहजनितसंशयपृ. ष्ठभविनी, शक्लरूप कि बलाका पताकेति संशयानस्न ईहात्पत्तः । न चाविशदावनहपृष्ठभाविन्येव ईहेति नियमः, विशदावग्रहेण पुरुषोऽयमिति अवगृहीतेऽपि वस्तुनि किमयं दाक्षिणात्यः किमुदीच्य इति संशयानस्य ईहाप्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् । संशयप्रत्ययः क्वान्तःपतेत् ? ईहायाम् । कुतः? ईहाहेतुत्वात् । तदपि कुतः? कारणे कार्योपचारात् । वस्तुतः पुनरवग्रह एव । का ईहा नाम? संशयाध्वैमवायावधस्तात्. मध्यावस्थायां वर्तमानः विमर्शात्मकः प्रत्ययः हेत्ववष्टम्भबलेन समुत्पद्यमानः ईहेति भण्यते। नानुमानमोहा, तस्य अनवगृहीतार्थविषयत्वात् । न च अवगृहीतानवगृहीतार्थविषययोः 'यह घट है, यह पट है ' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहां घटादिके विना रूप, दिशा और आकार आदि विशिष्ट वस्तुमात्र ज्ञानके द्वारा अनवध्यवसाय रूपसे जानी जाती है वहां भी अवग्रह ही है, क्योंकि अनवगृहीत अर्थ में ईहादि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी तरह शेष इन्द्रियोंका भी अवग्रह करना चाहिये। इस अवग्रहका जो आवारक कर्म है वह अवग्रहावरणीय कर्म है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषके जाननेकी इच्छा होना ईहा है । यह अनध्यवसायस्वरूप अवग्रहसे उत्पन्न हुए संशयके पीछे होती है, क्योंकि शुक्ल रूप क्या बलाका है या पताका है. इस प्रकार संशयको प्राप्त हर जीवके ईहाकी उत्पत्ति होती है। अविशद अवग्रहके पीछे होनेवाली ही ईहा है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है; क्योंकि, विशद अवग्रहके द्वारा ' यह पुरुष है' इस प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी ' क्या यह दक्षिणात्य हैं याउदीच्य हैं', इस प्रकारके संशयको प्राप्त हुए मनुप्यके भी ईहाज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है । शंका - संशय प्रत्ययका अन्तर्भाव किस ज्ञानमें होता है ? समाधान - ईहामें, क्योंकि वह ईहाका कारण है। शंका - यह भी क्यों ? समाधान - क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार होनेसे। वस्तुतः वह संशय प्रत्यय अवग्रह ही है। शंका - ईहाका क्या स्वरूप है ? समाधान - संशयके बाद और अवायके पहले बीचकी अवस्थामें विद्यमान तथा हेतुके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्ययको ईहा कहते हैं। ईहा अनुमानज्ञान नहीं है, क्योंकि अनुमानज्ञान अनवगृहीत अर्थको विषय करता है। और अवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले ईहाज्ञान तथा अनवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले अनुमानको 4 अ-आप्रत्योः '-मवायाधारात्,' काप्रती '-मवायाधारात् ', तांप्रतो '- मवायाधा (दा) रात् इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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