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२१८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ५, २३. स्तद्विरोधात् । किं च-नानयोरेकत्वम, स्वविषयादभिन्न-भिन्नलिंगजनितयोरेकत्वविरोधात्। न च संशयज्ञानवत् वस्त्वपरिच्छेदकत्वादीहाज्ञानमप्रमाणम् गृहीतवस्तुन ईहाज्ञानस्य दाक्षिणात्योदीच्यविषलिंगावगन्तुस्तदसम्भवतोऽप्रमाणत्वविरोधात्। न चावि. शदावग्रहपृष्ठभाविनी ईहा अप्रमाणम्, वस्तु विशेष परिच्छित्तिनिमित्तभूतायाः परिच्छिन्नतदेकदेशायाः संशयविपर्ययज्ञानाभ्यां व्यतिरिक्तायाः अप्रमाणत्वविरोधात्। अनध्यवसायरूपत्वादप्रमाणमिति* चेत-न, संशयच्छेदनस्वभावायाः अध्यवसितशुक्लादिविशिष्टवस्तुसामान्याया त्रिभुवनगतवस्तुभ्यः शौकल्यमाकृष्य एकस्विन् वस्तुति प्रतिष्ठापयिषोरप्रमाणत्वविरोधात् । एतस्याः आवारकं कर्म ईहावरणीयम् ।
स्वगतलिंगविज्ञानात् संशयनिराकरणद्वारेणोत्पन्ननिर्णयोऽवायः। यथा उत्पतन पक्षविक्षेपादिभिर्बलाकापंक्तिरेवेयं न पताकेति, वचनश्रवणतो दाक्षिणात्य एवाय नोदोच्य इति रा । एतस्य आवारकं यत् कर्म तदवायावरणीयम् । अवेतस्य कालान्तरे अविस्मरणएक मानना ठीक नहीं हैं, क्योंकि, भिन्न अधिकरणवाले होनेसे इन्हें एक मानने में विरोध आता है । इनके एक होने का यह भी एक कारण है कि ईहाज्ञान अपने विषयसे अभिन्नरूपलिंगसे उत्पन्न होता है और अनुमानज्ञान अपने विषयसे भिन्नरूप लिंगसे उत्पन्न होता है, इसलिये एक मानने में विरोध आता है । संशयज्ञानके समान वस्तुका परिच्छेदक नहीं होनेसे ईहाज्ञान अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ईहाज्ञान वस्तुको ग्रहण करके प्रवृत्त होता है और दाक्षिणात्य व उदीच्य विषयक लिंगका उसमें ज्ञान रहता है; इसलिये उसमें अप्रमाणता सम्भव न होने के कारण उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है । अविशद अवग्रहके बाद होनेवाली ईहा अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि वह वस्तुविशेषकी परिच्छित्तिका कारण है और वह वस्तुके एकदेशको जान चुकी है तथा वह संशय और विपर्यय ज्ञानसे भिन्न है । अतः उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है । वह अनध्यवसायरूप होनेसे अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि संशयका छेदन करना उसका स्वभाव है, शुक्लादि विशिष्ट वस्तुको सामान्यरूपसे वह जान लेती तथा त्रिभुवनगत वस्तुओंमेंसे शुक्लताको ग्रहण कर एक वस्तुमें प्रतिष्ठित करनेकी वह इच्छुक है; इसलिये उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। इसका आवारक क ईहावरणीय कर्म है।
स्वगत लिंगका ठीक तरहसे ज्ञान हो जानेके कारण संशय ज्ञानके निराकरण द्वारा उत्पन्न हुआ निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है । यथा- ऊपर उडना व पंखोंको हिलाना-डुलाना आदि चिन्होंके द्वारा यह जान लेना कि यह बलाकापंक्ति ही है, पताका नहीं है । या वचनोंके सुननेसे ऐसा जान लेना कि यह पुरुष दाक्षिणात्य ही है, उदीच्य नहीं है : यह अवायज्ञान है । इसका आवारक जो कर्म हैं वह अवायावरणीय कर्म है। अवायके द्वारा जाने हुए पदार्थके कालान्तरमें विस्मरण नहीं होनेका कारणभूत ज्ञान धारणा है।
* प्रतिषु — गंतु तदसंभवतो ' इति पाठः । ॐ ताप्रती 'ईहा, अप्रमाणवस्तु' इति पाठः[ * प्रतिषु 'रूपत्वात्प्रमाणमिति इति पाठः अ-आ-काप्रतिष ' प्रतितिष्ठापयिषो- ' इति पाठः। ताप्रती 'वचनश्रवणत:, दाक्षिणात्य ' इति पाठः ।
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