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________________ ५, ५, २४. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिवोहियणाणावरणपरूवणा ( २१९ कारणं ज्ञानं धारणा, यथा सैवेयं बलाका पूर्वाण्हे यामहमद्राक्षं इति । एतस्यावारकं* कर्म धारणावरणीयम् । न च फलज्ञानत्वादीहादीनामप्रामाण्यम्, दर्शनफलस्य अवग्रहस्याप्यप्रामाण्यप्रसंगात् सर्वस्य विज्ञानस्य कार्यरूपस्यैवोपलम्भात् । न गृहीतग्राहिस्वादप्रामाण्यम्, सर्वात्मना अगृहीतग्राहिणो बोधस्यानुपलम्मात् । न च गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम्, संशय-विपर्ययानध्यवसायजातेरेव अप्रमाणत्वोपलम्भात् । जं तं ओग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं वविहं अत्थोग्गहावरणीयं चेव वंजणोग्गहावरणीयं चेव ॥ २४ ॥ यथा- यह ज्ञान होना कि वही यह बलाका है जिसे प्रातःकाल हमने देखा था, धारणा है। इसका आवारक कर्म धारणावरणीय कर्म है । फलज्ञान होनेसे ईहादिक ज्ञान अप्रमाण हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अवग्रहज्ञानके भी दर्शनका फल होनेसे अप्रमाणताका प्रसंग आता है। दूसरे सभी ज्ञान कार्यरूप ही उपलब्ध होते हैं, इसलिये भी ईहादिक ज्ञान अप्रमाण नही हैं । ईहादिक ज्ञान गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वात्मना अगृहीत अर्थको ग्रहण करनेवाला कोई भी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। दूसरे गृहीत अर्थको ग्रहण करना यह अप्रमाणका कारण भी नहीं है; क्योंकि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूपसे जायमान ज्ञानोंमें ही अप्रमाणता देखी जाती है । विशेषार्थ - यहां दर्शन, अवग्रह और ईहाके स्वरूपपर विशद प्रकाश डाला गया है । इससे कई प्रश्नोंका समाधान हो जाता है । पहले दर्शन होता है । दर्शन क्या है, इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि पदार्थको जाननेकी भीतर जो अन्तर्मुखी प्रवृत्ति होती है और जिसम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है वह दर्शन है । दर्शन और ज्ञानकी कार्यमर्यादाके विषयमें विवाद है। पदार्थके आकार आदिको न ग्रहण कर 'है' इस रूपसे जो सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शन है और आकार आदिके साथ जो ग्रहण होता है वह ज्ञान है । दर्शन और ज्ञानकी एक ऐसी व्याख्या की जाती है. किन्तु वीरसेन स्वामी इस व्याख्यासे सहमत नहीं है। वीरसेन स्वामी आत्मप्रत्ययको दर्शन और परप्रत्ययको ज्ञान कहते हैं । इसी आधारसे उन्होंने दर्शनकी उक्त व्याख्या की है । अनन्तर विषय-विषयीका सम्पात होनेपर अवग्रहज्ञान होता है । पदार्थका चाहें विशद ग्रहण हो चाहे अविशद ग्रहण हो, जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यह कहीं कहीं अनध्यवसायरूप होता है और कहीं कहीं रूप आदि विशेषके परिज्ञानके साथ होता है । इसके बाद संशय हो सकता है, पर इस संशय ज्ञानका अवग्रहज्ञान में ही अन्तर्भाव होता है। यहां वीरसेन स्वामी अनध्यवसाय और संशय दोनोंको अवग्रह रूप मानते है । ____ अवग्रहावरणीय कर्म दो प्रकारका है- अर्थावग्रहावरणीय और व्यन्जनावग्रहा. वरणीय ॥२४॥ * ताप्रतो ' एतस्या आवारकं ' इति पाठः । ॐ अ-आ-काप्रतिषु · कार्य रूपस्यैवोप-' ताप्रती 'कार्य, रूपस्यैवीप-' इति पाठः। से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते 1 तं जहा- अत्थुग्गहे अ वंजणुग्गहे अ 1 नं. सू. २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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