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________________ २२० ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५,५, २४. कोsर्थावग्रहः ? अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः । को व्यंजनावग्रहः ? प्राप्तार्थग्रहण व्यंजनावग्रहः । न स्पष्टग्रहणमर्थावग्रहः, अस्पष्टग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । भवतु चेत्-न, चक्षुष्यप्य स्पष्टग्रहणदर्शनतो व्यंजनावग्रहस्य सत्यप्रसंगात् । न चैवम्, 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ' इति तत्र तस्य प्रतिषेधात् । नाशुग्रहणमर्थावग्रहः, शनैर्ग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । न चैवम्, शनैर्ग्राहिणश्चक्षुषोऽपि व्यंजनावग्रहप्रसंगात्, क्षिप्राक्षिप्रविशेषणाभ्यां विना षट्त्रिंशत् - त्रिशतभंगानुत्पत्तेश्च । मनश्चक्षुर्भ्यां व्यतिरिक्तेविद्रियेष्वप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति चेत्-न, धवस्य अप्राप्तनिधिग्राहिण उपलम्भात्' अलाबूवल्यादीनामप्राप्तवृत्तिवृक्षादिग्रहणोपलम्भात् । अर्थावग्रहस्य यदावारकं कर्म तदर्थावग्रहावरणीयम् । व्यंजनावग्रहस्य यदावारकं तद् व्यंजनावग्रहावरणीयम् । जं तं अत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं थप्पं ॥ २५ ॥ शंका- अर्थावग्रह क्या है ? समाधान- अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है । शंका- व्यंजनावग्रह क्या है ? समाधान- प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह है । स्पष्ट ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर अस्पष्ट ग्रहण के व्यंजनावग्रह होनेका प्रसंग आता है । शंका- ऐसा हो जाओ ? समाधान- नहीं, क्योंकि, चक्षुसे भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है, इसलिये उसे व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग आता है । पर एसा है नहीं, क्योंकि, ' चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता' इस सूत्र में उसका निषेध किया है । आशु ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेपर धीरे धीरे ग्रहण होनेको व्यंजनावग्रहत्वका प्रसंग आता है । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेवर धीरे धीरे ग्रहण करनेवाला चाक्षुष अवग्रह भी व्यंजनावग्रह हो जायगा । तथा क्षिप्र और अक्षिप्र ये विशेषण यदि दोनों अवग्रहों को नहा दिये जाते हैं तो मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद नहीं बन सकते हैं । शंका- मन और चक्षुके सिवा शेष चार इन्द्रियोंके द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना नहीं उपलब्ध होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधिको ग्रहण करता हुआ देखा जाता है और तूंबडीकी लता आदि अप्राप्त बाडी व वृक्ष आदिको ग्रहण करती हुई देखी जाती हैं ! इससे शेष चार इन्द्रियां भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध होता है । अर्थावग्रहका जो आवारक कर्म है वह अर्थावग्रहावरणीय कर्म है और व्यंजनावग्रहका जो आवारक कर्म है वह व्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है । जो अर्थावग्रहावरणीय कर्म है उसे स्थगित करते हैं ।। २५ । अ आ-काप्रतिषु 'भंगानुत्पत्तेश्चक्षुर्भ्यां ' इति पाठ: । तसू १-१९ 'आलावू Jain Education International ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only ताप्रतौ www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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