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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५,५, २४.
कोsर्थावग्रहः ? अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः । को व्यंजनावग्रहः ? प्राप्तार्थग्रहण व्यंजनावग्रहः । न स्पष्टग्रहणमर्थावग्रहः, अस्पष्टग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । भवतु चेत्-न, चक्षुष्यप्य स्पष्टग्रहणदर्शनतो व्यंजनावग्रहस्य सत्यप्रसंगात् । न चैवम्, 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ' इति तत्र तस्य प्रतिषेधात् । नाशुग्रहणमर्थावग्रहः, शनैर्ग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । न चैवम्, शनैर्ग्राहिणश्चक्षुषोऽपि व्यंजनावग्रहप्रसंगात्, क्षिप्राक्षिप्रविशेषणाभ्यां विना षट्त्रिंशत् - त्रिशतभंगानुत्पत्तेश्च । मनश्चक्षुर्भ्यां व्यतिरिक्तेविद्रियेष्वप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति चेत्-न, धवस्य अप्राप्तनिधिग्राहिण उपलम्भात्' अलाबूवल्यादीनामप्राप्तवृत्तिवृक्षादिग्रहणोपलम्भात् । अर्थावग्रहस्य यदावारकं कर्म तदर्थावग्रहावरणीयम् । व्यंजनावग्रहस्य यदावारकं तद् व्यंजनावग्रहावरणीयम् । जं तं अत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं थप्पं ॥ २५ ॥
शंका- अर्थावग्रह क्या है ?
समाधान- अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है ।
शंका- व्यंजनावग्रह क्या है ?
समाधान- प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह है ।
स्पष्ट ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर अस्पष्ट ग्रहण के व्यंजनावग्रह होनेका प्रसंग आता है ।
शंका- ऐसा हो जाओ ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, चक्षुसे भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है, इसलिये उसे व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग आता है । पर एसा है नहीं, क्योंकि, ' चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता' इस सूत्र में उसका निषेध किया है ।
आशु ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेपर धीरे धीरे ग्रहण होनेको व्यंजनावग्रहत्वका प्रसंग आता है । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेवर धीरे धीरे ग्रहण करनेवाला चाक्षुष अवग्रह भी व्यंजनावग्रह हो जायगा । तथा क्षिप्र और अक्षिप्र ये विशेषण यदि दोनों अवग्रहों को नहा दिये जाते हैं तो मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद नहीं बन सकते हैं ।
शंका- मन और चक्षुके सिवा शेष चार इन्द्रियोंके द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना नहीं उपलब्ध होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधिको ग्रहण करता हुआ देखा जाता है और तूंबडीकी लता आदि अप्राप्त बाडी व वृक्ष आदिको ग्रहण करती हुई देखी जाती हैं ! इससे शेष चार इन्द्रियां भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध होता है । अर्थावग्रहका जो आवारक कर्म है वह अर्थावग्रहावरणीय कर्म है और व्यंजनावग्रहका जो आवारक कर्म है वह व्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है ।
जो अर्थावग्रहावरणीय कर्म है उसे स्थगित करते हैं ।। २५ ।
अ आ-काप्रतिषु 'भंगानुत्पत्तेश्चक्षुर्भ्यां ' इति पाठ: ।
तसू १-१९
'आलावू
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' इति पाठः ।
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ताप्रतौ
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