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५, ५, २१. ) पयडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरूवणा ( २१५ सव्वघादी चेव; णिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाण आवरिदे वि चदुण्णं णाणाणं सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं । कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो ? ण, छारच्छण्णगीदो बप्फुरप्पत्तीए इव सव्वधादिणा आवरणेग आवरिदकेवलगाणादो चदुण्णं णाणागमुप्पतीए विरोहाभावादो । एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति, विगलाणं परोक्खाणं सक्खयाणं सवड्ढीण* सगल-पच्चक्ख क्खय-वडिहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयरत्तविरोहादो । पुव्वं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं घउदे ? ण, णाणसामण्णमवेक्खिय तदवयवत्तं पडि विरोहामावादो। संपहि णाणावरणीयउत्तरपयडिपरूवणं काऊग उत्तरोत्तरपयडिपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
सर्वघाति ही है; क्योंकि, वह केवलज्ञानका निःशेष आवरण करता है । फिर भी जीवका अभाव नहीं होता, क्योंकि, केवलज्ञानके आवृत्त होनेपर भी चार ज्ञानोंका अस्तित्व उपलब्ध होता है ।
__ शंका- जीवमें एक केवलज्ञान है । उसे जब पूर्णतया आवृत्त कहते हो, तब फिर चार ज्ञानोंका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाति आवरणके द्वारा केवलज्ञानके आवृत्त होनेपर भी उससे चार ज्ञानोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका- ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञानके अवयव नहीं हैं, क्योंकि ये विकल हैं परोक्ष हैं, क्षयसहित है, और वृद्धि-हानियुक्त हैं । अतएव इन्हें सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धि-हानिसे रहित केवलज्ञानके अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहले केवलज्ञानके चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है ?
___ समाधान- नहीं, क्योंकि, ज्ञानसामान्यको देखते हुए चार ज्ञानोंको उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता।
विशेषार्थ- ज्ञानके पांच भेद और उनके पांच आवरण कर्म कैसे प्राप्त होते हैं इस प्रश्नका वीरसेन स्वामीने बडी ही युक्तिपूर्वक समर्थन किया है । वास्तवमें ज्ञान एक हैं, इसलिये उसकी एक ही पर्याय प्रकट हो सकती है; उपकी एक साथ पांच अवस्थायें मानना युक्तियुक्त नहीं । यह प्रश्न है जिसका समाधान यहां वीरसेन स्वामीने किया है । उ कथनसे स्पष्ट है कि एक काल में ज्ञानकी एक ही पर्याय प्रकट होतो है। उसके पांच भेद निमित्तभेदसे किये गये है । अन्तमें एक ही ज्ञानपर्याय शेष रहती है, इससे भी यही द्योतित होता है।
ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियोंका कथन करके अब उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
काप्रती ' तं भ णिस्सेस-', ताप्रती ' तं णिस्सेस-' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु ' वप्पु' इति पाठ:*का-ताप्रत्योः 'सम्वड्ढीणं' इति पाठ: अप्रती 'पच्चक्खय', काप्रती 'पच्चक्खवक्खय'इति पाठः।
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