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________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( ११३ किरियाकम्मस्स तिरिक्खभंगो। जवरि जोणिणीसु बेहि मासेहि महत्तपुधत्तेण य ऊणाणि तिणि पलिदोवमाणि किरियाकम्मुक्कस्सकालो होदि । कुदो ? सम्माइट्ठीणं जोणिणीसु उप्पत्तीए अभावादो । तत्थप्पण्णमिच्छाइट्ठीणं पि महत्तपुधत्ताहियबमासेसु अणदिक्कतेसु सम्मत्तगहणाभावादो। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडच्च सव्वद्धा। एगजीव पड़च्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । मणुस्सगदीए मणुस्सतिगस्स पंचिदियतिरिक्खतिगभंगो। णवरि किरियाकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। कुदो ? ओदारमाणअपुवकरण उवसामगस्स अप्पमत्तगणं परिवज्जिय किरियाकम्मेण परिणमिय बिदियसमए चेव मरणवलंभादो। उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडितिभागेणन्महियाणि । कुदो? मणुस्सम्मि अठ्ठावीससंतकम्मियम्मि* पुवकोडितिभागावसेसे भोगभूमिएसु मणुस्साउअंबंधिय अंतोमुत्तेण सम्मत्तं घेत्तण खइयं पविय अंतोमहत्तणपुव्वकोडितिभागं किरियाकम्ममणुपालेदूण देवकुरु-उत्तरकुरवेसु उप्पज्जिय तत्थ तिण्णि पलिदोवमाणि जीविदूण देवेसु उववण्णम्मि अंतोमहत्तणपुवकोडितिभागाहियतिणिपलिदोवममेत्तस्स किरियाकम्मुक्कस्सकालस्स उवलंभादो । एवं मणुसपज्जत्ताणं पि क्त्तव्वं । अधिक तीन पल्य है। क्रियाकर्मका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि योनिनियोंमें क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल दो माह और मुहर्तपृथक्त्व कम तीन पल्य है, क्योंकि सम्यग्दृष्टियोंकी योनिनियों में उत्पत्ति नहीं होती। और जो मिथ्यादृष्टि जीव उनमें उत्पन्न होते है उनके भी जब तक मुहूर्तपृथक्त्व अधिक दो माह काल नहीं निकल जाता तब तक सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं होता। पचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगतिमें मनुष्यत्रिकका भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचत्रिकके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि उतरनेवाले किसी अपूर्वकरण उपशामक जीवका अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होकर क्रियाकर्मरूपसे परिणमन करके दूसरे समयमें ही मरण देखा जाता है । उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि अट्ठाईस कर्मकी सत्तावाला जो मनुष्य आयुमें पूर्वकोटिका त्रिभाग शेष रहनेपर भोगभूमि सम्बन्धी मनुष्यायुका बन्ध करनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सम्यक्त्वको ग्रहण कर और तदनन्तर क्षायिक सम्यक्त्वको प्रारम्भ कर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिके त्रिभाग काल तक क्रियाकर्मका पालन करता है, पश्चात् मरकर देवकुरु या उत्तरकुरुमें उत्पन्न होकर और वहां तीन पल्यप्रमाण काल तक जीवित रहकर देवोंमें उत्पन्न होता है, उसके क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त न्यून पूवकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्यप्रमाण उपलब्ध होता है। इसी प्रकार है अ-आ-काप्रतिषु 'ऊणाणि पलिदो-' इति पाठः। * अ-आप्रत्योः 'संतकम्मयम्मि', काप्रती । संतकम्मम्मि ' इति पाठ: 1 अ-आप्रत्योः कालवलंभादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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