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________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ११४ ) ( ५, ४, ३१. मणी किरियाम्ममेवं चेव । णवरि णवहि मासेहि एगूणवण्णअहोरतेहि य ऊणाणि तिष्णि पलिदोवमाणि किरियाकम्मुक्कस्सकालो होदि । इरियावथकम्म- तवोकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च ओघमंगो । मणुस्सअपज्जत्तेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवदीए देवेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एकजीवं पडुच्च जहणणेण दसवस्स सहस्रणि । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं किरियाकम्मं पि । णवरि जहणेण अतोमुहुत्तं । भवणवासिय वाणवेंतर जोदिसिय पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धि त्ति ताव पओअकम्मसमोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण जहाकमेण दसवस्ससहस्साणि ( दसवत्ससहस्साणि ) पलिदोवमस्स अट्ठमभागो पलिदोवमं सादिरेयं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण बे सत्त दस चोट्स सोलस अट्ठारस वीस बावीस तेवीस चउवीस पंचवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एक्कतीस बत्तीस सागरोवमाणि मनुष्य पर्याप्तकों के भी क्रियाकर्मका काल कहना चाहिये । मनुष्यिनियोंमें क्रियाकर्मका काल इसी प्रकार ही है । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल नौ माह और उनंचास दिन कम तीन पल्य है । ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका काल नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा ओघ के समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितता काल है ? नाना जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । देवगति में देवों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी काल है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमसे दस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष, पल्योपमका आठवां भाग, पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक पल्य, एक समय अधिक दो सागर, एक समय अधिक सात सागर, एक समय अधिक दस सागर, एक समय अधिक चौदह सागर, एक समय अधिक सोलह सागर, एक समय अधिक अठारह सागर, एक समय अधिक बीस सागर, एक समय अधिक बाईस सागर, एक समय अधिक तेईस सागर, एक समय अधिक चौबीस सागर, एक समय अधिक पच्चीस सागर, एक समय अधिक छब्बीस सागर, एक समय अधिक सत्ताईस सागर, एक समय अधिक अट्ठाईस सागर, एक समय अधिक उनतीस सागर, एक समय अधिक तीस ताप्रती 'कम्ममेत्तं चेव' इति पाठ: 1 ताप्रती दसवसस्ससहस्साणि ( २ ) इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः 'एक्कत्तीस सागरोवमाणि' इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International f www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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