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५, ४, ३१.)
कम्माणुओगद्दारे भावकम्मपरूवणा ____एत्थ एदाणि छ कम्माणि आधारभूदाणि कादूण संतदव्व-खेत्त-फोसण-कालंतरभावप्पाबहुआणुओगद्दाराणं परूवणं कस्सामो । तं जहा- संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण अस्थि पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्मइरियावथकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणिआदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु अत्थि पओअकम्म-समोदाणकम्मकिरियाकम्माणि । आधाकम्म-इरियावथकम्मतवोकम्माणि णत्थिाणेरइएसु ओरालियसरीरस्सउदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो। एवं सत्तसु पुढवीसु । देव-वेउव्वियसरीर-वेउवियमिस्सेसु णारगभंगो।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु अत्थि पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधारकम्म-किरियाकम्माणि । इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; तिरिक्खेसु,महत्वयाभावादो। एवं पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणि-पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु वि वत्तव्वं । णवरि पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु किरियाकम्म णत्थि तत्थ सम्मादिट्ठीणमभावादो।मणुसअपज्जत्तचिदियअपज्जत्त- तसअपज्जत्त -सव्वएइंदियसव्वविलिदिय-पंचकाय-मदि-सुदविभंगणाण-मिच्छाइट्ठि-असण्णीणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ___यहां इन छह कर्मोको आधार मान कर सत्, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व, इन अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं। यथा
सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, और क्रियाकर्म है । आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म होते हैं। ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते, क्यों क, नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पांच महाव्रत नहीं होते । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये । सब प्रकारके देव, वैक्रियिकशरीर काययोगी और वैक्रियिकमिश्र काययोगी मार्गणाओंमें नारकियोंके समान भंग हैं।
तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म और क्रियाकर्म होते हैं। ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि, तिर्यचोंके महाव्रत नहीं होते। इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यच योनिनी और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके क्रियाकर्म नहीं होता क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पांच स्थावर काय, मति अज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग हैं । अर्थात् इनके प्रयोगकर्म, समवदान कर्म और अधःकर्म होते हैं, शेष कर्म नहीं होते ।
* ताप्रतो ‘णेरइय' इति पाठः । - आप्रतौ 'तवोकम्माणि आधाए णेरइएसु ओरालिय' ताप्रती 'तवोकम्माणि रइएसु णत्थि ओरालिय' इति पाठः ।
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