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________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( १, ५, ४८. अंतिमपाहुडसद्दस्त दुरावित्तीए कदाए तदुवलंमादो । समाससद्दी पादेवकं संबंधजो अण्णा सुदणाणावरणस्स वीसदिविधत्ताणुववत्तदो । संपहिएदेसि वीसदिविधावरणाणं सरूवपरूवणठ्ठे ताव वीसदिविधसुदणाणस्स परूवणं कस्सामो । तं जहा सुहुमणिगोदल द्विअपज्जत्तयस्स जं जहण्णयं णाणं तं लद्धिअक्खरं णाम । कथं तस्स अक्खरसण्णा ? खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्टाणादो । केवलणाणमक्खरं, तत्थ वड्डि-हाणीणमभावादो | दव्वट्टियणए सुहुमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति वा अक्खरं । किमेदस्स पमाणं ? केवलणाणस्स अनंतिमभागो । एदं णिरावरणं, ' अक्खरस्साणंतिम भागो णिच्चुग्धाडिययो 'त्ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्यसंगादो वा । एदम्हि लद्धिअक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे सव्वजीवरासीदो अनंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदा आगच्छति । सव्वजीवरासीदो लद्धिमक्ख रमतगुणमिदि कुदो णव्वदे? परियम्मादो । तं जहा- सव्वजीवरासी वग्गिज्जमाणा - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्राभृतप्राभृत शब्दके अन्तिम प्राभृत शब्दकी समाधान - दो वार आवृत्ति की गई है। इसलिये उसका ग्रहण हो जाता है । 'समास' शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये क्योंकि, अन्यथा श्रुतज्ञानावरणके बीस भेद नहीं बन सकते । २६२) अब इन बीस प्रकारके आवरणोंके स्वरूपका कथन करनेके लिए बीस प्रकारके श्रुतज्ञानका कथन करते हैं । यथा - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है । शंका- इसकी अक्षर संज्ञा किस कारणसे है ? समाधान - क्योंकि, यह ज्ञान नाशके विना एक स्वरूपसे अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है. क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती । द्रव्वार्थिक नयकी अपेक्षा चूंकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान भी वही है, इसलिये भी इस ज्ञानको अक्षर कहते हैं । इसका प्रमाण क्या है ? शंका समाधान - इसका प्रमाण केवलज्ञानका अनन्तवां भाग है । -- इस यह ज्ञान निरावरण है, क्योंकि, अक्षरका अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित ( प्रगट ) रहता है, ऐसा आगमवचन है, अथवा इसके आवृत्त होनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है । लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशिका भाग देनेपर सब जीवनराशिसे अनन्तगुणे ज्ञानविभागप्रतिच्छेद आते हैं । शंका - सब जीवराशिसे लब्ध्यक्षरज्ञान अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह परिकर्मसे जाना जाता है । यथा 'सब जीवराशिका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयहि | प्रतिष' दुरावित्तीकदाए ' इति पाठ: । हवदि हु सव्वजण णिच्चुग्धाडं णिरावरणं ॥ गो जी. ३१९. Xxx सव्वजीवाणं पि य णं अक्खस्स्स अनंतभागो णिच्चुग्घाडिओ ( चिट्ठइ ) जइ पुण सो वि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा 1 नं. सू. ४२. काप्रती ' लद्धमक्खर ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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