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________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे लद्धिअक्खरादिसुदणाणपरूवणा ( २६३ वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणट्टाणाणि उवरि गंतूण सव्वपोग्गलदव्वं पावदि । पुणो सव्वपोग्गलदव्वं वग्गिज्जमाणं वग्गिज्जमाणं अणंतलोगमेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गंतुण सव्वकालं पावदि । पुणो सव्वकाला वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण सव्वागाससेढि पावदि। पुणो सव्वागाससेढी वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण धम्मत्थिय-अधम्मत्थियदव्वाणमगुरुअलहुअगणं पावदि । पुणो धम्मस्थिय अधम्मत्थिय-अगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणतलोगमेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गंतूण एगजीवस्स अगरुअलहुअगणं पावदि । पुणो एगजीवस्स अगरुअलहअगणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स लद्धिअक्खरं पावदि त्ति परियम्मे भणिलं । त पुण लद्धिअबखरं अक्खरसण्णिदस्स केवलणाणस्स अणंतिमभागो। तेणेदम्हि लद्धिअ. क्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं सव्वजीवरासीदो अणंतगणं णाणा विभागपडिच्छेदेहि होदि। एदम्मि पक्खेवे लद्धिअक्खरम्हि पडिरासिदम्मि पक्खित्ते पज्जयणाणप. माणमुप्पज्जदि।पुणो पज्जयमाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे भागलद्धं तम्मि तत्थेव पज्जयमाणे पडिरासिदे पक्खित्ते पज्जयसमासणाणमप्पज्जदिला पुणो एदस्सुवरि भाव. विहाणकमेण अणंतभागवडि-असंखेज्जभागवङ्गि-संखेज्जभागवटि संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगणवडि अणंतगणवडि कमेण पज्जयसमासणाणट्राणाणि णिरंतरं गच्छति जाव असंखज्जलोगमेत्तपज्जयसमासणाणदाणाणं दुचरिमाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे चरिमं पज्जयसमासणाणट्ठाणं होदि । अनन्त लोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है । पुन: सब पुद्गल द्रव्यका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है। पुन: सब कालोंका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब आकाशश्रणि प्राप्त होती हैं। पुनः सब आकाशश्रेणिका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यका अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है। पुन: धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके अगरुलघु गुणका उत्तरोत्तर वग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर एक जीवका अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है । पुनः एक जीवके अगुरुलघु गुणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपव अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपप्तिका लब्ध्यक्षरज्ञान प्राप्त होता है।" ऐसा परिकर्ममें कहा है। वह लब्ध्यक्षरज्ञान अक्षरसंज्ञक केवलज्ञानका अनन्तवा भाग है, इसलिये इस लब्ध्यक्षरज्ञान में सब जीवराशिका भाग देनेपर ज्ञानविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवराशिसे अनन्तगुणा लब्ध होता है । इस प्रक्षपको प्रति राशिभूत लब्ध्यक्षरज्ञान में मिलानेपर पर्यायज्ञानका प्रमाण उत्पन्न होता है । पुनः पर्ययज्ञानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो भागलब्ध आवे उसे प्रतिराशिभूत उसी पर्यायज्ञान में मिला देनेपर पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है । पुनः इसके आगे भावविधानोक्त विधानके अनुसार अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे असंख्यात लोकमात्र पर्यायसमास *प्रतिषु ' अणंतगुणणाणा-' इति पाठः 1 ताप्रती · भागं लद्धं ' इति पाठः । 8 ताप्रती ' पज्जयणाणसमासमुप्पज्जदि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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