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________________ २६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५,.४८ एवं पज्जयसमासणाणढाणाणि असंखेज्जलोगमेतछदाणपमाणाणि । पज्जयणाणं पुण एगवियप्पं चेव । कुदो? बहूणं पज्जयाणमभावादो । को पज्जओ णाम ? जाणाविभागपडिच्छेदपक्खेवो पज्जओ णाम । तस्स समासो जेसु णाणटाणेसु अस्थि तेसि णाणटाणाणं पज्जयसमासो त्ति सण्णा । जत्थ पुण एक्को चेव पक्खेवो तस्स गाणस्स पज्जओ* त्ति सण्णा, एक्कम्मि पज्जए समासाणववत्तीदो। एत्थ भावविहाणक्कमो चेव होदि त्ति कधं णव्वदे ? कम्म-जीवभावाणं भावतं पडि भेदाभावादो। रूव रसगंधफासादीणं पि भेदाभावेण भावविहाणक्कमो पसज्जदे ? ण एस दोसो, तत्थ वि छण्णं वड्ढीणं संभवब्भुवगमादो। पुणो चरिमपज्जयसमासणाणट्ठाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते अक्खरणाणमप्पज्जदि। एदं पुण अक्खरणाणं अणंताणंताणि सुहमणिगोदअपज्जत्तलद्धिअक्खराणि घेत्तूण होदि। लद्धिअक्खरं णिव्वत्तिअक्खरं संठाणक्खरं चेदि तिविहमक्खरं तत्थ जं तं लद्धिअक्खरं तं* सुहमणिगोदअप्पज्जत्तप्पहुडि जाव ज्ञानस्थानोंके द्विचरमस्थानके प्राप्त होने तक पर्यायसमासज्ञानस्थान निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं । पुन: इसके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि होनेपर अन्तिम पर्यायसमासज्ञानस्थान होता है। इस प्रकार पोयसमापज्ञानस्थान असंख्यात लोकमात्र छह स्थान प्रमाण प्राप्त होते हैं। परन्तु पर्यायज्ञान एक प्रकारका ही होता है, क्योंकि, बहुत, पर्यायोंका वहां अभाव है। शंका - पर्याय किस का नाम है? समाधान - ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदोंके प्रक्षेपका नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानोंमें होता है उन ज्ञानस्थानोंकी पर्यायसमास संज्ञा है। परन्तु जहां एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञानकी पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्याय में उनका समास नहीं बन सकता। शंका - यहां भावविधानका ही क्रम है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - क्योंकि, कर्म और जीवके भावोंका भावसामान्यके प्रति कोई भेद नहीं है। इससे जाना जाता है कि यहां भावविधानका ही क्रम है। शंका - इस प्रकारसे तो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिकोंके भी उससे कुछ भेद न होनेके कारण भावविधानक्रमका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहां भी छहों वृद्धियोंका सद्भाव स्वीकार किया गया हैं । पुनः अन्तिम पर्यायसमासज्ञानस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिलानेपर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है । यह अक्षरज्ञान सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरोंके बराबर होता है। अक्षरके तीन भेद हैं- लब्ध्यक्षर, निर्वत्यक्षर और संस्थानाक्षर । सूक्ष्म निगोद लब्ध्य 8 आ-का-ताप्रतिषु । पडिच्छेदो पक्खेवो ' इति पाठः। * आप्रती ' तंपसज्जओ, काप्रती । तंसपज्जओ ' इति पाठः। शताप्रती तं' इत्येतत्पदं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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