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________________ ५, ५, ४८. ) पर्या अणुओगद्दारे सुदणाणभेदणाणपरूवण ( २६५ " खओवसमा तेसि लद्धिअक्खरमिदि सण्णा । जीवाणं मुहादो णिगयस्स सद्दस्स निव्वतिअक्खरमिदि सण्णा । तं च णिव्वत्तिअक्खरं वत्तमवत्तं चेदि दुविहं । तत्थ वत्तं सणिपचिदियपज्जत्तएसु होदि । अवत्तं बेइंदियप्पहुडि जाव सष्णिपंचिदियपज्जत्तएसु होदि । जं तं संठाणक्खरं नाम तं ट्ठवणक्खरमिदि घेत्तव्वं । का टूवगा जाम ? एदमिदमक्खरमिदि अभेदेण बुद्धीए जा दुविदा लोहादव्वं वा तं ट्ठवणक्खरं नाम । एदेसु ति अक्खरे सुकेणेत्थ अक्खरेण पयदं ? लद्धिअक्खरेण ण सेसेहि; जडत्तादो । संपहि लद्धिअक्खरं जहण्णं सुहुमणिगोदलद्धिअवज्जत्तयस्स होदि, उक्करसं चोद्दसपुव्विस | निव्वत्तिअक्खरं जहण्णयं बेइंदियपज्जतादिसु, उक्कस्सयं चोद्दस पुव्विस्स । एवं संठाणक्खरस्स वि वत्तव्वं । एगादो अक्खरादो जहणणेण उप्पज्जदि णाणं तं अक्खरसुदणाणमिदि घंतव्वं । इमस्स अक्खरस्स उवरि बिदिए अक्खरे वडिदे अक्खरसमासो नाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरवडकमेण अक्खरसमासं सुदणाणं वडमाणं गच्छदि जाव संखेज्जक्खराणि वडिदाणि त्ति । पुणो संखेज्जक्खराणि घेत्तूण एवं पदसुदणाणं होदि । अत्थपदं पमाणपदं मज्झिमपदमिति तिविहं पदं होदि । तत्थ जेत्तिएहि अत्थोवलद्धी पर्याप्त से लेकर श्रुतकेवली तक जीवोंके जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है । जीवोंके मुखसे निकले हुए शब्दको निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। निर्वृत्त्यक्षरके व्यक्त ओंर अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं । उनमें से व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर द्वीन्द्रियसे लेकर संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त तक जीवोंके होता है । संस्थानाक्षरका दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, एसा यहां ग्रहण करना चाहिये । शंका स्थापना क्या है ? - समाधान – — यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेदरूपसे बुद्धिमें जो स्थापना होती है। या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है । शंका इन तीन अक्षरोंमेंसे प्रकृतमें कौनसे अक्षरसे प्रयोजन है ? Jain Education International - समाधान - लब्ध्यक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरोंसे नहीं है; क्योंकि वे जड स्वरूप हैं । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता हैं और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है । जघन्य निर्वृत्त्यज्ञर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक आदिकोंके होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधा - रीके होता है । इसी प्रकार संस्थानाक्षरका भी कथन करना चाहिये। एक अक्षरके जो जघन्य ज्ञान उत्पन्न होता है वह अक्षरश्रुतज्ञान है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । इस अक्षरके ऊपर दूसरे अक्षरकी वृद्धि होनेपर अक्षरसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए संख्यात अक्षरोंकी वृद्धि होने तक अक्षरसमास श्रुतज्ञान होता है । पुन: संख्यात अक्षरों को मिलाकर एक पद नामका श्रुतज्ञान होता है । अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद इस प्रकार पद तीन प्रकारका है । उनमें से 6 ताप्रतो' तीसु इति पाठ: । ॐ प्रतिषु 'जदत्तावो' इति पाठ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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