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________________ २६६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ४८. होदि तमत्थपदं णाम । एदं च अणवद्विदं, अणियदअक्खरेहितो अत्थुवलद्धिदसणादो। ण चेदमसिद्धं, अः विष्णुः, इ. कामः कः ब्रम्हा इच्चेवमादिसु एगेगक्खरादो चेव अत्युवलंभावो । अट्टक्खरणिप्फणं पमाणपदं । एदं च अवद्विदं, णियदट्ठसंखादो। सोलससदचोत्तीसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा*। १८ । एत्तियाणि अक्खराणि घेतण एगं मज्झिमपदं होदि । एदं पि संजोगक्खरसंखाए अवट्टिदं, वृत्तपमाणादो अक्खरेहि वडि-हाणीणभावादो। एदेसु केण पदेण पयदं ? मज्झिमपदेण । वृत्तं च तिविहं पदमुद्दिठं पमाणपदमत्थमज्झिमपदं च । मज्झिमपदेण वुत्ता पुव्वंगाणं पदविभागा । १९ । बारससदकोडीओ तेसीदि हवंति तह य लक्खाइं । अट्ठावण्णसहस्सं पंचेव पदाणि सुदणाणे । २० । जितनोंके द्वारा अर्थका ज्ञान होता है वह अर्थपद है। यह अनवस्थित है, क्योंकि, अनियत अक्षरोंके द्वारा अर्थका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, 'अ' का अर्थ विष्णु है, 'इ' का अर्थ काम है, और 'क' का अर्थ ब्रम्हा है। इस प्रकार इत्यादि स्थलोंपर एक एक अक्षरसे ही अर्थकी उपलब्धि होती है । आठ अक्षरसे निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है । यह अवस्थित है, क्योंकि इसकी आठ संख्या नियत है। सोलह सौ चौंतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) इतने मध्यम पदके वर्णन होते हैं। १८ । इतने अक्षरोंको ग्रहण कर एक मध्यम पद होता है। यह भी संयोगी अक्षरोंकी संख्याकी अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि, उसमें उक्त प्रमाणसे अक्षरोंकी अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। शंका - इन पदोंमेंसे प्रकृतमें किस पदसे प्रयोजन है ? समाधान - मध्यम पदसे प्रयोजन है। कहा भी है पद तीन प्रकारका कहा गया है- प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद। इनमेंसे मध्यम - पदके द्वारा पूर्व और अंगोंका पदविभाग कहा गया है । १९ । । श्रुतज्ञानके एक सौ बारह करोड तिरासी लाख अट्ठावन हजार और पांच (११२८३५८००५) ही पद होते हैं । २० । Bअ स्यादभावे स्वल्पार्थे विष्णावेष त्वनव्ययम् । अने. सं. ( प. कां ) १Xइ स्यात्खेदे प्रकोपोत्को 1. का ) ३ . को ब्रम्हण्यात्मनि रवी मयूरेऽयो यमेऽनिले 1 क शीर्षेऽप्सु सुखे xxx 1 अने, स. १-५ गो. जी ३३५ ४ षट्खं प ९ प १९६. तिविहं पदं तु भणिदं अत्थपद-पमाण-मज्झिमपद ति मज्झिमपदेण भणिदा पुळांगाणं पदविभागा। क पा १, पृ ९२ * काप्रती ' वासपदकोडीओ, ताप्रती ' बारसप (स) दकोडीओ ' इति पाठः। अट्ठावण्णसहस्सा णि य छप्पण्णमेत्तकोडीओ तेसीदिसदसहस्स पदसंखा पंच सुदणाणे। क. पा, १, पृ. ९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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