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________________ कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाइं मणं च तेहितो।। अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि. ॥२९ ।। एवं ज्झायंतस्स लक्खणं परूविदं। मंपहि ज्झयपरूवणं कीरदे-को ज्झाइज्जइ? जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो* णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो अदज्झो अछेज्जो अवत्तो णिरंजणो णिरामओ अणवज्जो सयलकिलेसुम्मुक्को तोसवज्जियो वि सेवयजणकप्परुक्खो, रोसवज्जिओ वि सगसमयपरम्मुहजीवाणं कयंतोवमो, सिद्धसज्झो जियजेयो संसार-सायहतिण्णो सुहामियसायरणिबुड्ढासेस* करचरणो णिच्चओ णिरायुहभावेण जाणावियपडिवक्खाभावो सव्वलक्खणसंपुण्णदप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावृत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ। द्रव्यत: क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा । सिद्धाष्टगृणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः ॥ ३० ।। बारसगुणकलियो । एत्थ गाहा इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर और मन को भी विषयोंसे दूर कर समाधिपूर्वक उस मनको अपने आत्मामें लगावे ।। २९ ।। इस प्रकार ध्यान करनेवालेका लक्षग कहा । अब ध्येयका कथन करते हैंशंका- ध्यान करने योग्य कौन है ? समाधान- जो वीतराग है, केवलज्ञानके द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित छह द्रव्योंको जान लिया है, नौ केवल लब्धि आदि अनन्त गुणोंके साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देहको धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनिसम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य हैं, अव्यक्त है, निरंजन है, निरामय है, अनवद्य है, समस्त क्लेशोंसे रहित है, तोष गणसे रहित होकर भी सेवक जनोंके लिये कल्पवृक्षके समान हैं, रोषसे रहित होकर भी आत्मधर्मसे पराङमुख हुए जीवोंके लिये यमके समान है, जिसने साध्यकी सिद्धि कर ली है जो जितजेय है, संसार-सागरसे उत्तीर्ण है, जिसके हाथ-पैर सुखामृत-सागर में पूरी तरहसे डुबे हुए हैं, नित्य है, निरायध हानसे जिसने उसका कोई प्रतिपक्षा नहा है इस बातका जताया है,समस्त परिपूर्ण है अतएव दर्पण में संक्रान्त हुई मनुष्य की छायाके समान होकर भी समस्त मनुष्योंके प्रभावसे परे हैं, अव्यक्त है, अक्षय है। सिद्धोंके आठ गुण होते हैं। उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार गुण मिलानेपर बारह गुण माने गये हैं ।। ३०॥ इस प्रकार जो बारह गुणोंसे विभूषित है। इस विषय में गाथा ताप्रतौ पच्छाहरित ' इति पाठः। - भग. १७०७. *ताप्रती 'पज्जाओ, उवचियछदव्वो' इति पाठः । ॐ आ-ताप्रत्योः 'अजरो अजोणिसंभवो' इति पाठः। * अ-आप्रत्योः ‘णिव्वद्धासेस' ताप्रतौ ‘णिबुद्धा (ड्डा ) सेस' इति पाठः। 5 अप्रतौ ‘णि रावहभावेण', आ-ताप्रत्योः 'णिराभावेण ' इति पाठः । ताप्रती 'माणुस सहावृत्तिण्णो' इति पाठः। आ-काप्रत्योः 'अक्खओ' इत्यतः पश्चात् 'बारस' इत्येतदधिक पदम्पलभ्यते। आप्रती 'वारसरसगणकलियो', ताप्रतो 'गणरसकलियो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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