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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
पुव्वकभासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ य णाण- दंसण चरित्त वे रग्गज णियाओ ।। २३ ।। णाणे णिच्च भासो कुणइ मणोवारणं विद्धि च । णाणगुणमुणियसारो तो ज्झायइ णिच्चलमईओ ॥ २४ ॥ संकाइसल्लरहियो पसमत्थेयादिगुणगणोवईयो । होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए ज्झाणम्मि ।। २५ ।। वकम् माणादाणं पोराणवि णिज्जरा सुहादाणं । चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ ।। २६ ।। सुविदियजयस्सहावो णिस्संगो णिब्भयो णिरासो य । वेरग्भावियमणो ज्झाणम्मि सुणिच्चलो होइ ॥ २७ ॥
विहितो दिट्ठ णिधिऊण ज्झेये णिरुद्ध चित्तो । कुदो? विसएसु पसरतदिद्विस् थिरत्ताणुववत्तीदो। एत्थ गाहाओ
किंचिद्दिट्टिमुपावत्तत्तु ज्झेये णिरुद्धदिट्ठीओ । अप्पाणम्मि सदि संधित्तुं संसारमोक्ख ॥। २८ ।।
६८)
जिसने पहले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यानकी योग्यताको प्राप्त होता है और वे भावनायें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं ॥ २३ ॥ जिसने ज्ञानका निरन्तर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह और विशुद्धिको प्राप्त होता है, क्योंकि, जिसने ज्ञानगुणके बलसे सारभूत वस्तुको जान लिया हैं वही निश्चलमति हो ध्यान करता है ।। २४ ।।
( ५, ४, २६.
जो शंका आदि शल्योंसे रहित है, और जो प्रशम तथा स्थैर्य आदि गुणगणोंसे उपचित है, वही दर्शनविशुद्धि बलसे ध्यान में असंमूढ मनवाला होता है ।। २५ ।।
कर्मोंका ग्रहण नहीं होता, ।। २६ ।
चारित्र भावनाके बलसे जो ध्यान में लीन है उसके नूतन पुराने कर्मोंकी निर्जरा होती है, और शुभ कर्मोंका आस्रव होता है जिसने जगत् के स्वभावको जान लिया है, जो निःसंग है, निर्भय है, सब प्रकारकी आशाओंसे रहित है और वैराग्य की भावनासे जिसका मन ओतप्रोत है वही ध्यानमें निश्चल होता है ।। २७ ।।
( ९ ) वह ( ध्याता) विषयोंसे दृष्टिको हटाकर ध्येय में चित्तको लगानेवाला होता है, क्योंकि, जिसकी दृष्टि विषयों में फैलती है उसके स्थिरता नहीं बन सकता । इस विषय में गाथायें - जिसकी दृष्टि ध्येय में रुकी हुई है वह बाह्य विषयसे अपनी दृष्टिको कुछ क्षणके लिए हटा कर संसारसे मुक्त होने के लिए अपनी स्मृतिको अपने आत्मा में लगावे ॥ २८ ॥
* तातो' णाणे च णिच्चभासो' इति पाठः । * तातो' णाणागुण' इति पाठः । प्रतिपु ' सल्लगहियो' इति पाठः । अप्रतौ 'सदिदित्तुं', आप्रती 'सदिस्संदित्तु', ताप्रतौ ' सदिस्सदित्तु
इति पाठः । भग. १७०६.
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