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________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणेसु णिच्चलमणाणं । गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रणे य ण विसेसो ॥ १८ ॥ कालो वि सो च्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । ण उ दिवस णिसावेलादिणियमणं ज्झाइणो समए ।।१९।। तो देसकालचेट्टाणियमो झाणस्स णत्थि समयम्मि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं ।। २० ।। सालंबणो- ण च आलंबणेण विणा ज्झाण-पासायारोहणं संभवइ, आलंबणभूदणिस्सेणिआदी हि विणा पासादादिमारोहमाणपुरिसाणमणुवलंभादो । एत्थ गाहा आलंबणाणि वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहाओ। सामाइयादियाइं सव्वं आवासयाइं च ।। २१ ।। विसमं हि समारोहइ दिढदव्वालंबणो* जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ ।। २२ ।। सुठ्ठ त्तिरयणेसु भावियप्पा । ण च भावणाए विणा ज्झाणं संपज्जइ, एगवारेणेव बुद्धीए थिरत्ताणुववत्तीदो । एत्थ गाहा परन्तु जिन्होंने अपने योगोंको स्थिर कर लिया है और जिसका मन ध्यानमें निश्चल हैं ऐसे मुनियोंके लिये मनुष्योंसे व्याप्त ग्राम और शून्य जंगलमें कोई अन्तर नहीं है ॥ १८॥ काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीतिसे योगका समाधान प्राप्त होता है। ध्यान करनेवालेके लिए दिन, रात्रि और वेला आदि रूपसे समयमें किसी प्रकारका नियमन नहीं किया जा सकता ॥ १९ ॥ ध्यानके समयमें देश, काल और चेष्टाका भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वतः जिस तरह योगोंका समाधान हो उस तरह प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥ २० ॥ (७) वह (ध्याता) आलम्बनसहित होता है। आलम्बनके विना ध्यानरूपी प्रासादपर आरोहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, आलम्बनभूत नसैनी अ.दिके विना पुरुषोंका प्रासाद आदिपर आरोहण करना नहीं देखा जाता । इस विषयमें गाथा है वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और सामायिक आदि सब आवश्यक कार्य; ये सब ध्यानके आलम्बन हैं ॥ २१ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष नसनी आदि दृढ द्रव्यके आलम्बनसे विषम भूमिपर भी आरोहण करता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदिके आलम्बनसे उत्तम ध्यानको प्राप्त होता है ।। २२।। (८) वह (ध्याता) भले प्रकार रत्नत्रयको भावना करनेवाला होता है। भावनाके विना ध्यानकी प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि, केवल एक वार में ही बुद्धि में स्थिरता नहीं आती। इस विषयमें गाथा है ताप्रती 'वेलाणियमणं' इति पाठ: *ताप्रती 'पि समारो 8 प्रतिषु 'जोग्गाण' इति पाठः। पाइददव्याल बणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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