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________________ २८८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५०. अनेन वचनकलापेनेति श्रुतवादो द्रव्यश्रुतम् । सुदवादो ति गदं । मस्करी-कणभक्षाक्षपादकपिल सौद्धोदनि-चार्वाक-जैमिनिप्रभतयस्तद्दर्शनानि च परोद्यन्ते दृष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । परवादो त्ति गर्द। लोक एव लौकिकः । को लोकः ? लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थाः स लोकः । स त्रिविधः ऊधिोमध्यमलोकभेदेन । स लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकबादः सिद्धान्तः। लोइयवादो त्ति गदं । लोकोत्तरः अलोकः, स उच्यते कथ्यते अनेनेति लोकोत्तरवादः। लोकोतरीयवादो त्ति गदं । चारित्राच्छ तं प्रधानमिति अग्रयम् । कथं ततः श्रुतस्य प्रधानता? श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः । अथवा, अग्रयं मोक्ष, तत्साहचर्याच्छ तमप्यग्रयम् । अग्गं ति गदं । मार्गः पंथा श्रुतम् । कस्य ? मोक्षस्य । न ' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यनेन विरोधः, द्वादशांगस्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राविनाभाविनो मोक्षमार्गत्वेनाभ्युपगमात् । मग्गं ति गदं । किया जाता है वह द्रव्यश्रुत श्रुतवाद कहलाता है । इस प्रकार श्रुतवादका कथन किया। मस्करी, कगभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि आदि तथा उनके दर्शन जिसके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात् दूषित किये जाते हैं वह राद्धान्त ( सिद्धान्त परवाद कहलाता है। इस प्रकार परवादका कथन किया । लौकिक शब्दका अर्थ लोक ही है । शंका- लोक किसे कहते हैं? समाधान- जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं। वह लोक तीन प्रकारका है- ऊर्ध्वलोक, मध्यमलोक और अधोलोक । जिसके द्वारा इस लोकका कथन किया जाता है वह सिद्धान्त लौकिकवाद कहलाता है । इस प्रकार लौकिकवाद पदका कथन किया। लोकोत्तर पदका अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है इस प्रकार लोकोत्तरवादका कथन किया। चारित्रसे श्रुत प्रधान है इसलिये उसकी अग्रय संज्ञा है। शंका- चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है ? ___समाधान- क्योंकि, श्रुतज्ञानके विना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये चारित्रकी अपेक्षा श्रतकी प्रधानता है। ___ अथवा अग्रय शब्दका अर्थ मोक्ष है । उसके सहचर्यसे श्रुत भी अग्रय कहलाता है। इस प्रकार अग्रय पदका कथन किया । मार्ग, पथ और श्रुत ये एकार्थक नाम है । किसका मार्ग ? मोक्षका। ऐसा माननेपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षके मार्ग हैं' इस कथनके साथ विरोध होगा, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके अविनाभावि द्वादशांगको मोक्षमार्गरूपसे स्वीकार किया है। इस प्रकार मार्ग पदका व्याख्यान किया। ताप्रती ' अनेनेति वा लौकिकवादः ' इति पाठः। 8त. सू. १, १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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