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________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (८१ णफलं; सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहमसांपराइयस्स चरिमसमए मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो। तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीयविणासो पुण धम्मज्झाणफलं, सुहुमसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो। मोहणीयस्स उवसमो जदि धम्मज्झाणफलं तो ण क्खदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो? ण, धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एयत्तवियक्क-अवीयार-ज्झाणस्स अप्पडिवाइविसेसणं किण्ण कदं? ण, उवसंतकसायम्मि भवद्धा*खएहि कसाएसु णिवदिदम्मि पडिवादुव" लंभादो। उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्कावीचारे संते 'उवसंतो दु पुधत्तं' इच्चेदेण विरोहो होदि ति णासंकणिज्जं,तत्थ पुधत्तमेवे त्तिणियमाभावादो। ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव, जोगपरावत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स* वि संभवसिद्धीदो। एत्थ गाहाओपरन्तु मोहका सर्वोपशम करना धर्मध्यानका फल है, क्योकि, कषायसहित धर्मध्यानीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना देखी जाती है । तीन घाति कर्मोका निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानका फल है। परन्तु मोहनीयका विनाश करना धर्म्यध्यानका फल है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका विनाश देखा जाता है। शंका- मोहनीय कर्मका उपशम करना यदि धर्म्यध्यानका फल है तो इसीसे मोहनीयका क्षय नहीं हो सकता, क्योंकि, एक कारणसे दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ? . समाधान- नहीं, क्योंकि, धर्माध्यान अनेक प्रकारका है, इसलिये उससे अनेक प्रकारके कार्योकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। शंका- एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानके लिये 'अप्रतिपाता' विशेषण क्यों नहीं दिया? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशान्तकषाय जीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है । शंका- यदि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है तो • उवसंतो दु पुधत्तं' इत्यादि गाथावचनके साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें केवल पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । और क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें सर्वत्र एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा भी कोई नियय नहीं है। क्योंकि, वहां योगपरावृत्तिका कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय कालके प्रारम्भ में पृथक्त्ववितकवीचार ध्यानका अस्तित्व भी सिद्ध होता है। इस विषयमें गाथायें ताप्रती 'मोहणीयणासो' इति पाठः। -अ-आप्रत्योः 'वियक्कोवीयार' इति पाठः * प्रतिषु भवत्था' इति पाठः। 6 अ-आप्रत्यो: 'विरोहादो होदि ' इति पाठः। अ-ताप्रत्यो ' -णववत्तीबलेण', अप्रतौ ' णुववत्तीदोबलेण' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः 'विदक्कावीचारस्स', ताप्रती विदक्का (क्क) वीचारस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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