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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, ८. एयक्खेत्तमणंतरबंधं भवियं च णेच्छदुज्जुसुदो । णामं च फासफासं भावप्फासं च सद्दणओ ॥ ८॥ एदस्स गाहासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-क्षियन्ति निवसन्ति * यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम्। एकंच तत्क्षेत्रं च एकक्षेत्रमिति व्युत्पत्तिमाश्रित्य जदि एगो आगासपदेसो घेप्पदि तो एगक्खेत्तफासो णत्थि। कुदो? अण्णे सिमण्णत्थ अप्पाणं मोत्तूण णिवासाभावादो, सव्वेसि पयत्थाणं सरूवे चेव गिविट्ठाणमुवलंभादो च। जो जस्स अप्पोवलद्धीए कारणं सोतस्स आहारो। इयरो वि तत्थ वसदि ति भणिदे, ण च आग:सादो सेसदव्वाणं सरूवोवलद्धी; णिप्फण्णाणं तत्थावट्ठाणदंसगादो। तदो आगासस्स खेत्तत्ताभावादो एगक्खेत्तफासो णत्थि । अथ खियंतिज गिवसंति जम्हि तं खेत्तमिदि जदि सगरूवं चेव घेपदि तो वि एगक्खेत्तफासो णत्थि, एगक्खेत्ते एगसरूवे दुभावाभावादो। ण च एकम्हि फासो अत्थि; तस्स दुप्पहुडीसु चेव उवलंभादो। ऋजुसूत्र एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करता। किन्तु शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्शको ही स्वीकार करता है ॥ ८॥ अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा- 'क्षि' धातुका अर्थ · निवास करना है। इसलिये क्षेत्र शब्दका यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गल आदि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं। एक जो क्षेत्र वह एकक्षेत्र कहलाता है। इस प्रकार इस व्युत्पत्तिका आलम्बन लेकर यदि एक आकाशप्रदेश ग्रहण किया जाता है, तो एक क्षेत्रस्पर्श नहीं बनता; क्योंकि, अन्य द्रव्योंका अपने सिवाय अन्य द्रव्योंमें निवास नहीं पाया जाता, और सभी पदार्थ अपने स्वरूप में निविष्ट ही उपलब्ध होते हैं । ऐसा नियम है कि जो जिसकी स्वरूपोपलब्धिका कारण होता है वही उसका आधार माना जा सकता है। यदि कहा जाय कि इतर पदार्थ भी उसमें निवास करता है तो इसपर हमारा कहना यह है कि आकाश द्रव्यसे शेष द्रव्योंकी स्वरूपोपलब्धि तो होती नहीं, क्योंकि, निष्पन्न पदार्थोंका ही आकाशमें अवस्थान देखा जाता है. इसलिये आकाशको क्षेत्रपना नहीं प्राप्त होनेसे एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बनता। जिसमें 'खियंति णिवसंति' अर्थात् निवास करते हैं वह क्षेत्र है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार यदि वस्तुका अपना स्वरूप ही ग्रहण किया जाता है, तो भी एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बनता; क्योंकि ऐसा मानने पर एकक्षेत्रका अर्थ होता है एक स्वरूप, और ऐसी अवस्थामें उसमें द्वित्व नहीं बन सकता। यदि कहा जाय कि एकमें भी स्पशकी उपलब्धि हो जायगी, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, उसकी दो आदि द्रव्यों के रहने पर ही उपलब्धि होती है। ॐ प्रतिषु 'क्षीयंति' इति पाठः । *ताप्रती-'सन्त्यस्मिन' इति पाठः । अ-काप्रत्योः भगणदे' इति पाठः । ताप्रती 'गिफणाण' इति पाठः । ॐ प्रतिषु ‘खीयंति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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