SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ३, ८. ) फासाणुओगद्दारे फासणय विभासणदा ( ७ एवमत रखेत्तफासो वि णत्थि । कुदो ? खेत्ताभावादो । जदि आगासस्स खेत्तत्तं सिद्धं तो सांतरखेत्त-अनंतरखेत्ताणं पि संभवो होज्ज । ण च वृत्तणाएण आगासस्स खेत्तत्तमत्थि । तदो अनंत रखेत्ताभावादो अणंतरखेत्तफासो वि णत्थि त्ति घेत्तव्वो । खेत्तसद्दे सरूवे वट्टमाणे संते वि गाणंतरक्खेत्तमत्थि एदमेदस्स अनंतर मिदि वयणपवृत्तीए णिबंधणाभावादो। ण च अच्चंतपुधभूदाणमत्थाणमणंतरमत्थि, विरोहादो । बंधफासो वि णत्थि । कुदो? बंधो णाम दुभावपरिहारेण एयत्तावत्ती । ण च तत्थ फासो अत्थ; यत्ते तव्विरोहादो : ण च सव्वफासेण वियहिचारो, तत्थ एगत्तावत्ती विणा सव्वावयवेहि फासब्भुवगमादो । तहा भवियफासो वि णत्थि ; अणुप्पण्णफासपज्जायस वट्टमाणकाले अत्थित्तविरोहादो, उप्पण्णस्स विसेसफासेसु अंतब्भावदंसणादो, वट्टमाणकालं मोत्तू सेसकालाभावादो च । तहा वणफासो वि णत्थि ; सोयमिदि संकप्पवसेण अण्णस्स अण्णसरूवावत्तीए अभावादो, वट्टमाणकालेण सह दुवणाए विरोहादो च । इसी प्रकार अनन्तरक्षेत्रस्पर्श भी नहीं बनता, क्योंकि, क्षेत्र नामकी कोई वस्तु ही नहीं ठहरती । यदि आकाश द्रव्यको क्षेत्रपना सिद्ध हो, तो सान्तरक्षेत्र और अनन्तरक्षेत्र भी सिद्ध हो सकते है । परन्तु पूर्वोक्त न्यायसे आकाश के क्षेत्रपना सिद्ध नहीं होता, इसलिये अनन्तर क्षेत्र की सिद्धि न होनेसे अनन्तरक्षेत्र स्पर्श भी नहीं बनता, ऐसा यहां स्वीकार करना चाहिये । यदि स्वरूपार्थ में विद्यमान क्षेत्र शब्द लिया जाता है, तो भी अनन्तक्षेत्र नहीं बनता, क्योंकि यह इसके अनन्तर है, इस वचनप्रवृत्तिका कोई कारण नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि अत्यन्त पृथग्भूत पदार्थों का अन्तर नहीं पाया जाता, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। बन्धस्पर्श भी नहीं है, क्योंकि द्वित्वका त्यागकर एकत्वकी प्राप्तिका नाम बन्ध है । परन्तु एकत्वके रहते हुए स्पर्श नहीं पाया जाता, क्योंकि एकत्वमें स्पर्शके मानने में विरोध आता हैं । यदि कहा जाय कि इस तरह तो सर्वस्पर्श के साथ व्यभिचार हो जायगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि वहां पर एकत्वकी प्राप्ति के विना सब अवयवोंद्वारा स्पर्श स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार भव्यस्पर्श भी नहीं है, क्योंकि जब स्पर्श पर्यायही उत्पन्न नहीं हुई तब उसका वर्तमान कालमें सद्भाव मानने में विरोध आता है । और यदि स्पर्श पर्याय उत्पन्न भी हो गई है, तो उसका शेष स्पर्शो में अन्तर्भाव देखा जाता है । दूसरे, वर्तमान कालके सिवाय शेष कालोंका अस्तित्व भी नहीं पाया जाता, इसलिये भी भव्यस्पर्श नहीं बनता । इसी प्रकार स्थापना स्पर्श भी नहीं है, क्योंकि ' वह यह है ' इस संकल्पके कारण अन्य अन्यस्वरूप नहीं हो सकता, और वर्तमान कालके साथ स्थापना-निक्षेपका विरोध भी है । विशेषार्थ - यहां युक्तिपूर्वक यह बतलाया गया है कि ऋजुसूत्र नय एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्र स्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और स्थापना स्पर्शको क्यों नहीं स्वीकार करता । सार यह है कि ऋसूत्र नयका विषय न तो द्वित्व हैं और न अतीत अनागत काल है, किन्तु इन अप्रती 'पारब्भुवगमादो', ताप्रती 'पारंभुवगमादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy