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५, ३, ७. )
फासाणुओगद्दारे फासणयविभासणदा णत्थि चेव; बंध-फाससद्दाणमत्थभेदाभावादो। बंधेण विणा वि लोहग्गीणं फासो दोसदि त्ति भगिदे - ण, संजोग-समवायलक्खणसंबंधेहि विणा फासाणुवलंभादो।
भवियफासो किमट्टमवणिदो ? विस-जंत-कूड-पंजरादीणमिच्छिददव्वेहि संपहि फासो णत्थि त्ति अवणिदो । ण च दोण्णं फासेण विणा फाससण्णा जुज्जदे, विरोहादो। अपुट्टकाले फासो पत्थि, पुटुकाले कम्म-णोकम्म-सव्व-देसफासेसु पविसदि ति भवियफासो अवणिदो ति दृढव्वो। भवियफासो ठवणफासे पविसदि त्ति संगहणओ अवणेदि, सो एसो ति अज्झारोवेण विणा संपहि जंतादिसु फासाणुववत्तीदो।
पाया जाता । यदि कहा जाय कि बन्धके विना भी लोह और अग्निका स्पर्श देखा जाता है, इसलिये बन्धसे स्पर्श भिन्न है, सो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि संयोग सम्बन्ध और समवाय सम्बन्धके विना स्पर्श स्वतन्त्ररूपसे नहीं पाया जाता ।
विशेषार्थ-यहां यह प्रश्न है कि बन्ध स्पर्श संग्रहनय और व्यवहारनयका विषय क्यों नहीं है? इस प्रश्नका दो प्रकारसे समाधान किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि बन्धस्पर्शका कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है । कर्मस्पर्शके कर्म और नोकर्म ये दो भेद हैं। लोकों और आगममें बन्ध शब्द द्वारा इन्हींका ग्रहण होता है, इसलिये बन्धस्पर्शका कर्मस्पर्श में अन्तर्भाव किया गया है। पर बन्ध शब्दका जो अर्थ है वही अर्थ स्पर्श शब्दसे भी ध्वनित होता है, यह देखकर दूसरा उत्तर यह दिया गया है कि बन्धस्पर्श स्वतन्त्र वस्तु ही नहीं है, इसलिये उसे व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं माना गया है ।
शंका- भव्यस्पर्शको उक्त दोनों नयोंका विषय क्यों नहीं कहा है ?
समाधान- एक तो विष, यन्त्र, कूट और पिंजरा आदिका विवक्षित द्रव्योंके साथ वर्तमानमें स्पर्श नहीं उपलब्ध होता, इसलिये भव्यस्पर्शको उक्त दोनों नयोंका विषय नहीं कहा है। यदि कहा जाय कि दोका स्पर्श हुए विना भी पर्श संज्ञा बन जायगी, सो भी बात नही है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। दूसरे, अस्पृष्ट काल में स्पर्श है नहीं और स्पष्टकालमें उसका कर्मस्पर्श, नोकर्मस्पर्श, सर्वस्पर्श और देशस्पर्श में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये भी भव्यस्पर्शको व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं माना, ऐसा यहां जानना चाहिये । तथा भव्यस्पर्श स्थापनास्पर्शमें अन्तर्भूत हो जाता है, इसलिये सग्रहनय उसे स्वीकार नहीं करता; क्योंकि वह यह है ' ऐसा अध्यारोप किये विना वर्तमान काल में यन्त्रादिकमें स्पर्श-व्यवहार नहीं बन सकता।
विशेषार्थ- भव्यस्पर्शका स्वरूप आगे बतलानेवाले हैं। उससे स्पष्ट है कि भव्यस्पर्शमें वर्तमानकालीन स्पर्श विवक्षित न होकर स्पर्शकी योग्यता ली गई है, और व्यवहारनय तथा संग्रहनय ऐसे स्पर्शको स्वतन्त्ररूपसे ग्रहण नहीं करते ; इसलिए यहां भव्यस्पर्श व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं है, यह कहा है।
अप्रतौ 'अभणिदो' इति परिवर्तितः पाठः। 6 अप्रतौ च दोपणं', ताप्रतौ च (ण) दोण्णं' इति पाठः। .
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