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छ खंडागमे वेयणाखंड
तम्हा पुवं ताव णयविभासणदा कीरदे । उक्तं च
प्रमाणनयनिक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ १॥ को णओ के फासे इच्छदि ? ।।६।
के वा णेच्छदि त्ति एत्थ पुच्छा किण्ण कदा? ण, एदे इच्छदि ति अवगदे सेसे ण इच्छदि त्ति उवदेसेण विणा अवगमादो।
सवे एदे फासा बोद्धव्वा होंति णेगमणयस्स । णेच्छदि य बंध-भवियं ववहारो संगहणओ य ।।७।।
एदस्स गाहासुत्तस्स अत्थो उच्चदे।तं जहा-णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरस वि फासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो। ववहारणओ संगहणओ च बंध-भवियफासे णेच्छंति । एदेहि णएहि किमळं बंधफासो अवणिदो? ण एस दोसो, कम्मप्फासे तस्स अंतब्भावादो। तं जहा-कम्मफासो दुविहो कम्मफासो णोकम्मफासो चेदि। तेसु दोसु वि बंधफासो पददि ; तेहितो वदिरित्तबंधाभावादो। अधवा बंधफासो ऐसा देखा नहीं जाता। इसलिये पहले नयविभाषणता अधिकारका कथन करते हैं। कहा भी है
जिस पदार्थका प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा, नेगमादि नयों के द्वारा और नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ युक्त ( मंगत) होते हुए भी अयुक्तसा (असंगतसा) प्रतीत होता है, और अयुक्त होते हुए भी युक्तसा प्रतीत होता है ।
कौन नय किन स्पर्शोको स्वीकार करता है ? ॥६॥ शंका-यहां 'और किन स्पर्शोको नहीं स्वीकार करता है' एसी पृच्छा क्यों नहीं की?
समाधान- नहीं, क्योंकि इन स्पर्शोको स्वीकार करता है, ऐसा ज्ञान हो जानेपर शेषको नहीं स्वीकार करता, यह उपदेशके विना ही जाना जाता है।
नैगमनयके ये सब स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। किन्तु व्यवहारनय और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करते ॥७॥
इस गाथासत्रका अर्थ कहते हैं। यथा-असंग्रहिक नैगमनयके ये तेरह ही स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहां जानना चाहिये, क्योंकि यह नय सब नयोंके विषयोंको स्वीकार करता है। व्यवहारनय और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको नहीं स्वीकार करते।
शंका- बन्धस्पर्श इन दोनों नयों का विषय क्यों नहीं है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन दोनों नयोंकी दृष्टि में उसका कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है। यथा-कर्मस्पर्श दो प्रकारका है कर्मस्पर्श और नोकर्मस्पर्श । बन्धस्पर्शका उन दोनोंमें ही अन्तर्भाव होता है, क्योंकि इन दोनोंके सिवाय बन्ध नहीं पाया जाता। अथवा बन्धस्पर्श है ही नहीं, क्योंकि, बन्ध और स्पर्श इन दोनों शब्दोंमें अर्थभेद नहीं
ॐति प. १, ८२., वि. भा. २७६४.
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