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________________ ५, ३, ५.) फासाणुओगद्दारे फासणयविभासणदा (३ पयदं के वा ते तेरस अत्या ति पुच्छि दे तेरसण्णं फाससहत्थाणं परूवणं काऊण अपयदत्थे णिराकरिय पयदत्थपरूवणटुमागदो। तेरसविहे फासणिक्खेवे-णामफासे ठवणफासे दवफासे एयखेत्तफासे अणंत रखेत्तफासे देसफासे तयफासे सव्वफासे फासफासे कम्मफासे बंधफासे भवियफासे चेदि ॥४॥ एवं फाससद्दो तेरसेसु अत्थेसु वट्टदे। ण च तेरसेसु चेव अत्थेसु फाससद्दो वट्टदि त्ति अवहारणमत्थि, किंतु फाससद्दत्थाणं दिसादरिसणमेदेण कयं । फासणयविभासणदाए ।। ५ ।। फासस्स णयविभासणदा फासणयविभासणदा, तीए फासणयविभासणदाए अहियारो* त्ति भणिदं होदि । तेरसणिक्खेवे भणिदण तेसिमट्ठमभणिय किमढें फासणय विभासा कीरदे ? ण एस दोसो; णयविभासणदाए विणा णिक्खेवत्थपरूवणाणुववत्तीदो। निश्चये क्षिपतीति निक्षेपो नाम। ण च णयविभासणदाए विणा संसयाणज्झवसायविवज्जासट्टियजोवे तत्तो ओहट्टिदूण* णिक्खेवो णिच्छयम्मि टुविदुं समत्थो, अणुवलंभादो। शब्दके तेरह अर्थोंका कथन करके, उनमेंस अप्रकृत अर्थों का निराकरण करके प्रकृत अर्थका प्ररूपण करने के लिये यह स्पर्शनिक्षेप अधिकार आया है। स्पर्शनिक्षेप तेरह प्रकारका है नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श ॥४॥ इस प्रकार स्पर्श शब्द तेरह अर्थो में उपलब्ध होता है । स्पर्श शब्द इन तेरह अर्थों में ही पाया जाता है, ऐसा कोई निश्चय नहीं हैं; किन्तु इस सूत्र द्वारा स्पर्श शब्दके अर्थोंका मात्र दिशाज्ञान कराया गया है। स्पर्शनयविभाषणताका अधिकार है ॥५॥ स्पर्शका नयद्वारा विशेष व्याख्यान करना स्पर्शनयविभाषणता कहलाता है । उसका यहां अधिकार है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। शका- तेरह प्रकारके निक्षेपोंका निर्देश तो किया, पर उनका अर्थ न कहकर पहले स्पर्शोका नयद्वारा विशेष व्याख्यान क्यों किया जा रहा है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नयद्वारा विशेष व्याख्यान किये विना निक्षेपार्थका कथन करना सम्भव नहीं है। निक्षेप शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः' अर्थात् जो किसी एक निश्चयपर पहुँचाता है उसे निक्षप कहते हैं। परन्तु निक्षेप नयविभाषणता अधिकारका कथन किये विना सशय, अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञानमें स्थित जीवोंको वहांसे हटा कर किसी एक निश्चय में स्थापित करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि, 3 अप्रतौ 'फास सब दवाण', ताप्रतौ 'फाससद्दद्धा (त्था) णं' इति पाठः। O ताप्रतौ 'तेरसविहो फासणिक्खे' इति पाठः । ॐ अ-ताप्रत्योः 'अहियादो (रो)' इति पाठः । * प्रतिषु 'आयट्रिदूण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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