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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५,३, २. तत्थ इमाणि सोलस अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - फासणिकखेवे फासणय विभासणदाए फासणामविहाणे फासदव्वविहाणे फासखेत्तविहाणे फासकालविहाणे फासभावविहाणे फासपच्चयविहाणे फाससामित्तविहाणे फासफासविहाणे फासगइविहाणे फासअणंतरविहाणे फाससण्णियासविहाणे फासपरिमाणविहाणे फासभागाभाग - विहाणे फास अप्पा बहुए ति ॥ २ ॥ एवमेदे फासाणुयोगद्दारस्स सोलस अत्याहियारा । किमट्टमेदे सोलस अत्याहियारा एत्थ पडिवज्जंति ? ण, एदेहि विणा फासाणुयोगद्दारस्स अवगमोवायाभावादो । तम्हा सोलसेहि अणुयोगद्दारेहि फासपरूवणा कायव्वा त्ति सिद्धं । जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो पढमं फासणिक्खेवपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदिफासणिक्खेवेति ॥ ३ ॥ पुध्वं जमादिट्ठो फासणिक्वेवो तस्स परूवणं कस्सामा | किमहं फासणिक्खेवो आगो ? एसो फासो तेरसेसु अत्थेसु वट्टदे । तत्थ केण अत्थेण पयदं केण वाण उसमें ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं - स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनय विभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्रविधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्शभावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्श विधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनन्तरविधान, स्पर्शसंनिकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्श अल्पबहुत्व ॥ २ ॥ इस प्रकार स्पर्श अनुयोगद्वारके ये सोलह अर्थाधिकार होते हैं । शंका- यहां ये सोलह अर्थाधिकार क्यों कहे गये है ? समाधान- नहीं, क्योंकि इनके विना स्पर्श अनुयोगद्वारके ज्ञान करानेका अन्य कोई उपाय नहीं है 1 इसलिये इन सोलह अनुयोगोंके द्वारा स्पर्शका कथन करना चाहिये, यह बात सिद्ध होती है । अब ' उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायके अनुसार पहले स्पर्शनिक्षेप अधिकारका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं अब ' स्पर्श निक्षेप' का अधिकार है ॥ ३ ॥ पहले जिस स्पर्शनिक्षेपका निर्देश कर आये हैं, उसका यहां कथन करते हैं । शंका- स्पर्शनिक्षेप अधिकार किसलिये आया है ? समाधान - यह स्पर्श शब्द तेरह अर्थों में विद्यमान है। उनमें से प्रकृत में किस अर्थ से प्रयोजन है और किस अर्थसे प्रयोजन नहीं है, अथवा वे तेरह अर्थ कौन हैं, ऐसा प्रश्न करनेपर स्पर्श प्रतिपु 'तं जहा' इति पाठः । अ-आ प्रत्योः 'परुविदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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