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________________ ५, ५, ३०. ) पयडिअणुओगद्दारे ईहावरणीयपरूवणा ( २३१ वरणीयं जिभिदियईहावरणीयं फासिदियईहावरणीयं णोइंदियईहावरणीयं । तं सव्वमीहावरणीयं णाम कम्म* ॥ ३० ॥ चक्खिदियेण अवगहिदत्थविसेसाकखणं विसेसुवलंभणिमित्तविचारो ईहे त्ति घेत्तव्वा । तिस्से आवारयं कम्म चक्खिदियईहावरणीयं णाम | सोदिदिएण गहिदसद्दो कि गिच्चो अणिच्चो दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ ति चदुण्णं वियप्पाणं मज्झे एगवियप्पस्स लिंगगवेसणं सोदिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्मं सोदिदियईहावरणीयं । घाणिदियेण गंधमवग्गहिदूण एसो गंधो कि गुणरूवो किमगणरूवो कि दुस्सहावी किमदुस्सहाओ किं जच्चतरमावण्णो ति पंचण्णं वियप्पाणमण्णदवियप्पलिंगण्णेसणं एदेण होदव्वमिदि पच्चयपज्जवसाणं घाणिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्मं धाणिदियईहावरणीयं । जिभिदिएण रसमादाय कि मत्तो किममत्तो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ कि जच्चतरमावण्णो ति विचारपच्चओ जिभिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्म जिभिदियईहावरणीयं । फासिदिएण णिद्धादिफासमादाय किमेसो मयणफासो किं वज्जलेवफासो कि कुमारिगिरफासो कि पिसिदमासफासो त्ति एदेसु अण्णदमस्स लिंगण्णेसणं फासिदियमदईहा। तिस्से कर्म, जिह वेन्द्रिय ईहावरणीय कर्म, स्पर्शनेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म और नोइन्द्रियईहावरणीय कर्म; यह सब ईहावरणीय कर्म है ॥ ३० ॥ __ चक्षु इन्द्रियके द्वारा अवगृहीत अर्थके विशेषोंको जाननेकी इच्छा अर्थात् विशेषोंके जानने के निमित्त होने वाला विचार ईहा है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । इसका आधारक कर्म चक्षुइन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। श्रोत्रन्द्रियके द्वारा ग्रहण किया गया शब्द क्या नित्य है, क्या अनित्य है, क्या द्विस्वभाव है, या क्या अद्विस्वभाव है। इस प्रकार इन चार विकल्पों में से एक विकल्पके लिंगकी गवेषणा करना श्रोत्रेन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म श्रोत्रेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है । ध्राण इन्द्रियके द्वारा गन्धका अवग्रह करके यह गन्ध क्या गुणस्वरूप है, क्या अगुणस्वरूप है, क्या द्विस्वभाव है, क्या अद्विस्वभाव है, या क्या जात्यन्तरको प्राप्त है। इस प्रकार पांच विकल्पोंमेंसे अन्यतम विकल्पके लिंगकी गवेषणा करना कि 'यह होना चाहिए' इस प्रकारका प्रत्यय-पर्यवसितज्ञान घ्राणेन्द्रियगत ईहा है। इसका आवारक कर्म घ्राणेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। जिह वा इन्द्रियके द्वारा रसको ग्रहण करके वह क्या मूर्त है, क्या अमूर्त है, क्या द्विस्वभाव | अद्विस्वभाव है, या क्या जात्यन्तर अवस्थाको प्राप्त है। इस प्रकारका विचाररूप ज्ञान जिह वेन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म जिह वेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्निग्ध आदि स्पर्शको ग्रहण कर क्या यह मदनस्पर्श है. क्या वज्रलेपस्पश है, क्या कूमारिगिरस्पर्श है, या क्या पिशित-मांसस्पर्श है। इस प्रकार इनमेंसे किसी एकके लिंगकी गवेषणा करना स्पर्शनइन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म स्पर्शन इन्द्रिय * से किं तं ईहा ? ईहा छविहा पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिअईहा चक्खिदिअईहा घाणिदिअईहा जन्भिदिअईहा फासिदिअईहा नोइंदिअईहा 1 नं. सू. ३२.४ आप्रती लिंगण्णेसण्णं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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