SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ४८. अंगबाहिरचोदसपइण्णयज्झाया* आयारादिएक्कारसंगाइं परियम्म-सुत्तपढमाणुयोगचुलियाओ च कत्थंतब्भावं गच्छंति? ण अणुयोगद्दारे तस्स समासे वा, तस्स पाहुडपाहुडपडिबद्धत्तादो। ण पाहुडपाहुडे तस्समासे वा, तस्स पुव्वगयअवयव. त्तादो। ण च परियम्म-सुत्त-पढमाणुयोग लियाओ एक्कारस अंगाई वा पुन्वगयावयवा । तदो ण ते कत्थ विलयं गच्छति? ण एस दोसो, अणुयोगद्दार-तस्स - मासाणं च अंतब्भावादो। ण च अणुयोगद्दार-तसमासेहि पाहुडपाहुडावयवेहि चेव होदव्वमिदि णियमो अस्थि, विप्पडिसेहाभावादो। अधवा, पडिवत्तिसमासे एदेसिमतब्भावो वत्सम्वो। पच्छाणुपुवीए पुण विवक्खियाए पुवसमासे अंतब्भावं गच्छंति त्ति वत्तन्वं । शका- अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकाध्याय, आचार आदि ग्यारह अंग, परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग और चूलिका; इनका किस श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है। अनुयोगद्वार या अनुयोगद्वारसमासमें तो इनका अन्तर्भाव हो नहीं सकता, क्योंकि, ये दोनों प्राभूतप्राभृत श्रुतज्ञानसे प्रतिबद्ध हैं । प्राभूतप्राभत या प्राभतप्राभूतसमासमें भी इनका अन्तर्भाव नह हो सकता, क्योंकि, ये पूर्वगतके अवयव है । परन्तु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और ग्यारह अंग ये पूर्वगतके अवयव नहीं हैं। इसलिये इनका किसी भी श्रुतज्ञानक भेदमें अन्तर्भाव नहीं होता? समाधानयह कोई दोष नहीं है क्योंकि, अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमासमें इनका अन्तर्भाव होता है । अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास प्रातिप्राभूतके अवयव ही होने चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि, इसका कोई निषेध नहीं किया है । अथवा प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञानमें इनका अन्तर्भाव कहना चाहिये । परन्तु पश्चादानुपूर्वीकी विवक्षा करनेपर इनका पूर्वसमास श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव होता है, यह कहना चाहिये ।। विशेषार्थ- एक ओर समस्त श्रुतज्ञानके ग्यारह अंग, चौदह पूर्व, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और अंगबाह्य इतने भेद किय हैं और दूसरी ओर यहां श्रुतज्ञानके जो बीस भद बतलाये हैं वे सब पूर्वगतज्ञानसे प्रतिबद्ध ज्ञात होते हैं, क्योंकि, पूर्वके अधिकारोंको वस्तु, वस्तुके अवान्तर अधिकारोंको प्राभृत, प्राभूतके अवान्तर अधिकारोंको प्राभूतप्राभूत, प्राभृतप्राभूतके अवान्तर अधिकारोंको अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारके अवान्तर अधिकारोंको प्रतिपत्ति कहते हैं। संघात प्रतिपत्तिके और पद संघातके अवान्तर भेद हैं । इसलिये चौदह पूर्वोके सिवा शेष श्रुतज्ञानका किस भेदमें अन्तर्भाव होता है, यह एक प्रश्न है। प्रकृतमें इसी प्रश्न का उत्तर दो प्रकारसे दिया गया है। पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा शेष ज्ञान भेदोंका अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास ज्ञानमें या प्रतिपत्तिसमास ज्ञानमें अन्तर्भाव किया है और पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा इन भेदोंका पूर्वगतमें ही अन्तर्भाव किया है । जहां तक प्रश्नके समाधानकी बात है, इस उत्तरसे समाधान तो हो जाता है पर यह जिज्ञासा बनी रहती है कि यदि ऐसी बात थी तो पूर्व पूर्व ज्ञानभेदको उत्तर उत्तर ज्ञानभेदका अवान्तर अधिकार नहीं मानना था । किंतु यहां इस प्रकारकी व्यवस्था न कर सब अनुयोगद्वारोंकी परिसमाप्ति पूर्वसमासमें की गई है । व्याख्यामें तो *काप्रती ' पइण्णवज्झाया ' इति पाठ:1४ आ-काप्रत्यो: ' कथंतब्भाव ', ताप्रती ' कथं (त्थं) तब्भावं ' ति पाठ:10 अ-काप्रत्योः 'एयं ' इति पाठः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy