________________
२५४)
छखंडागमे बग्गणा-खंड तिसंजोगेण बारसमक्खरं १२ । पुणो अयार आ३यार-इयाराणं तिसंजोगेण तेरसमक्खरं १३ । पुणो आयार-आ३यार-इयाराणं तिसंजोगेण चोद्दसमक्खरं १४ । पुणो अयार-आयार-आ३यार-इयाराणं चदुसंजोगेण पण्णारसमक्खरं १५ । एवं चदुण्णमक्खराणं एग-दु-ति-चदुसंजोगेण पण्णारस अक्खराणि उप्पण्णाणि । एत्थ पण्णारस चेव सुदणाणवियप्पा होति । तदावरणवियप्पा तत्तिया चेव । जेणेवमक्खराणि उप्पज्जति तेण अण्णोष्णब्भत्थरासी सम्वत्थ रूवणा कायव्वा । अणेण विहाणेण सेसक्खरपरूवणं पि काऊण अंतेवासीणं अवगमो उपाएदव्वो। एवं कदे
एय? च च य छ सत्तयं च च य सुण्ण सत्त तिय सत्तं ।
सुण्णं णव पण पंच य एग छक्केक्कगो य पणगं च ॥ १३ ॥ एत्तियमेत्ताणि संजोगक्खराणि उप्पज्जति । तेहितो तत्तियमेत्ताणि चेव सुदणाणाणि उप्पज्जति । तदावरणवियप्पा वि तत्तिया चेव । अधवा
एकोत्तरपदवृद्धो रूपाद्यैर्भाजितश्च पदवृद्धैः । गच्छ: संपातफलं समाहतः सन्निपातफलम.
म ॥ १४ ॥ एवीए कारणगाथाए सगलसंजोगक्खराणं सुदणाणाणं तदावरणाणं च वियप्पा
पुनः अकार, आकार और इकारके त्रिसंयोगसे तेरहवां अक्षर होता है १३ । पुनः आकार, आ३कार और इकार त्रिसंयोगसे चौदहवां अक्षर होता है १४ । पुनः अकार, आकार, आ३कार और इकारके चार संयोगसे पन्द्रहवां अक्षर होता है १५ । इस प्रकार चार अक्षरोंके एक, दो, तीन और चार संयोगसे पन्द्रह अक्षर उत्पन्न होते हैं। यहां पन्द्रह ही श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं और तदावरणके विकल्प भी उतने ही होते हैं । यतः इस विधिसे अक्षर उत्पन्न होते हैं. अत: अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्वत्र एक अंकसे कम करनी चाहिय । इसी विधिसे शेष अक्षरोंका भी कथन करके शिष्योंको उनका ज्ञान कराना चाहिये । ऐसा करनेपर- .
एक आठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नौ पांच पांच एक छह एक और पांच अर्थात् १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ॥ १३ ।।
__ इतने मात्र संयोग अक्षर उत्पन्न होते हैं । तथा उनसे इतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं, और श्रुतज्ञानावरणके विकल्प भी उतने ही होते हैं। अथवा
एकसे लेकर एक एक बढाते हुए पदप्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्तमें स्थापित एकसे लेकर पदप्रमाण बढी हुई संख्याका भाग दो । इस क्रियाके करनेसे सख्यातफल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है । उस सम्पातफलको त्रेसठ बटे दो आदिसे गुणा कर देनेपर सनिपातफल प्राप्त होता है ।। १४ ॥
इस करणगाथाके द्वारा सब संयोगाक्षरों, श्रुतज्ञानों और श्रुतज्ञानावरणोंके भी विकल्प उत्पन्न
@ ताप्रती ‘य पणयं।1' इति पाठः 1 गो. जी. ३५२. * षट्वं. पु. ५, पृ. १९३., पु. १२, पृ. १६२ जयध. २, पृ. ३००.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org :