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________________ ५,५, १४०. ) अणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३९१ एदस्स सुत्तस्स अत्थो जहा वेयणाए परुविदो तहा परूवेयव्वो, विसेसाभावादो । जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेयविहा । तं जहा -- सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्णर- किंपुरिस गरुड-गंधव्वजक्खरक्खस- मणुअ-महोरग मिय-पसु-पक्खि- - दुवय-चउप्पय- जलचर-थलचरखगचर-देव- मणुस्स- तिरिक्ख-णेरइयणियणुगा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम ।। १४० ॥ तत्र अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । तद्विपरीताः असुराः । फणोपलक्षिताः नागाः । सुपर्णा नाम शुभपक्षाकारविकरणप्रियाः । गीतरतयः किन्नराः प्रायेण मैथुनप्रियाः किंपु. रुषाः । गरुडाकारविकरणप्रियाः गरुडाः । इन्द्रादीनां गायकाः * गान्धर्वाः । लोभभूयिष्टा: नियुक्ताः यक्षाः नाम । भीषणरूपविकरणप्रियाः राक्षसा नाम। मानुषीसु मैथुनसेवकाः मनुजा नाम। सर्पाकारेण विकरणप्रियाः महोरगाः नाम । रोमंथवजितास्तिर्यंचो मृगा नाम । सरोमंथाः पशवो नाम । पक्षवन्तस्तिर्यंचः पक्षिणः द्वौ पादौ येषां ते द्विपदाः । चत्वारः पादाः येषां ते चतुष्पादाः | मकर- मत्स्यादयो जलचराः । वृक व्याघ्रादयः * इस सूत्र के अर्थ की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वार ( पु. ९, पृ. २५१-२६४ / में की गई हैं उसी प्रकारसे यहां भी करनी चाहिए, क्योंकि, उससे यहां कोई विशेषता नहीं है । जो नोआगमभावप्रकृति है वह अनेक प्रकारकी है । यथा- सुर, असुर, नाग, सुपर्ण, किनर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षीर द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर खगचर, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; इन जीवोंकी जो अपनी अपनी प्रकृति है वह सब नोआगमभावप्रकृति है ॥ ४० ॥ जिनकी अहिंसा आदि अनुष्ठानमें रति है वे सुर कहलाते हैं । इनसे विपरीत असुर होते हैं । फणसे उपलक्षित नाग कहलाते हैं । शुभ पक्षोंके आकाररूप विक्रिया करनेमें अनुराग रखनेवाले सुपर्ण कहलाते हैं । गानमें रति रखनेवाले किनर कहलाते हैं प्रायः मैथुन में रुचि रखनेवाले किंपुरुष कहलाते हैं । जिन्हें गरुडके आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड कहलाते हैं । इन्द्रादिकोंके गायकोंको गान्धर्व कहते हैं । जिनके लोभकी मात्रा अधिक होती है। और जो भाण्डागार में नियुक्त किये जाते हैं वे यक्ष कहलाते हैं । जिन्हे भीषण रूपकी विक्रिया करना प्रिय है वे राक्षस कहलाते हैं। मनुष्यिनियोंके साथ मैथुन कर्म करनेवाले मनुज कहलाते हैं । जिन्हें सर्पाकार विक्रिया करना प्रिय है वे महोरग कहलाते हैं । जो तिर्यंच रोंथते नहीं हैं वे मृग कहलाते हैं और जो रोथते हैं वे पशु कहलाते हैं। पंखोंवाले तिर्यंच पक्षी कहलाते हैं । जिनके दो पैर होते हैं वे द्विपाद कहलाते हैं जिनके चार पैर होते हैं वे चतुष्पाद कहलाते हैं । मगर - मछली आदि जलचर कहलाते हैं । भेडिया और वाघ आदि स्थलचर कहलाते हैं । जो आकाश में गमन करते हैं वे खचर कहलाते हैं । L का-ताप्रयोः ' गायनाः ' इति पाठ: । Jain Education International ताप्रती ' वृषव्याघ्रादयः ' इति पाठः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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