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________________ ३९० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, १३८ पुष्पाहारादिः । परित्यज्य पुनर्भुज्यत इति परिभोगः स्त्री-वस्त्राभरणादिः । तत्रभरणानि स्त्रीणां चतुर्दश । तद्यया- तिरीट-मकूट चुडामणि हारार्द्धहार-कटि-कंठसूत्रमुक्तावलि- कटकांगदांगलीयक-कुंडलवेय-प्रालंबाः । परुषस्य खड्ग-क्षुरिकाभ्यां सह षोडश+ । वीर्य शक्तिरित्यर्थः । एतेषां विघ्नकदन्तरायः । एवमंतराइयस्स पच पयडीओ। एवं कम्मपयडीए समत्ताए दव्वपयडी समत्ता। जा सा भावपयडी णाम सा दुविहा-- आगमदो भावपयडी चेव णोआगमदो भावपयडी चेव ॥ १३८ ॥ आगमो सिद्धंतो सुदणाणं जिणवयणमिदि एयट्ठो । आगमदो अण्णो णोआगमो । जा सा आगमदो भावपयडी णाम तिस्से इमों णिद्देसो-- ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सत्तसमं अत्थसमं गंथसम णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थदि-धम्मकहा वा जेचा मण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्ट जावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी गाम ॥ १३९ ॥ पान, पुष्प और आहार आदि । छोडकर जो पुनः भोगा जाता है वह उपभोग है । यथा- स्त्री, वस्त्र और आभरण आदि । इनमें स्त्रियोंके आभरण चौदह होते हैं । यथा- तिरीट, मुकुट, चूडामणि, हार, अर्धहार, कटिसूत्र, कण्ठसूत्र, मुक्तावलि, कटक, अंगद, अंगूठी, कुण्डल, ग्रेवेय और प्रालम्ब । पुरुषके खड्ग और छुरी के साथ वे सोलह होते हैं । वीर्यका अर्थ शक्ति है । इनकी प्राप्तिमें विध्न करनेवाला अन्तराय कर्म है । इस प्रकार अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृति यां हैं। इस प्रकार कर्मप्रकृति के समाप्त होनेपर द्रव्यप्रकृति समाप्त हुई। जो भावप्रकृति है वह दो प्रकारको है - आगमभावप्रकृति और नोआगमभावप्रकृति ॥ १३८ । आगम, सिद्धान्त, श्रुतज्ञान और जिनवचन, ये एकार्थवाची शब्द है । आगमसे अन्य नोआगम है। जो आगमभावप्रकृति है उसका यह निर्देश है- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और धोषसम तथा इनमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनप्रेक्षणा, स्तव स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग हैं वे सब भाव हैं; ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगमभावकृति है ।। १४९ ॥ .कुंडलमंगद-हारा मउड केयरपळू-कडयाई । पालंबसूत्त-णेउर-दोमही-मेहलासि छुरियाओ || गेवज्ज कण्णपुरा पुरिसाणं होंति सोलसाभरणं । चोद्दस इत्थीआण रिया करवालहीणाई ! कधय-कडिसु-त्त-णेउरतिरिपालंबसुत्त-मद्दीओ 1 हारा कुंडल-मउलद्धहार-चुडामणी वि गेविजा 1 अंगद-रिया खग्गा. पुरिसाणं होति सोलसाभरणं 1 चोइस इत्थीण तहा रियाखग्गेहि परिहीणा। ति. प. ४,२६१-६४ * आप्रती 'पंचपयडीए ' इति पाठः। षटखं. क. अ. ५४-५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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