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________________ ७२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदकम्मसमुप्पण्णजाइ-जरा-मरणवेयणाणुसरणं तेहितो अवाचितणं च अवायविचयं णाम धम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ रागबोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी ।। ३९ ।। कल्लाणपावए जे उवाए विचिणादि जिणमयमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाणं जे सुहा असुहा* ।। ४० ।। कम्माणं सुहासुहाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसभएण चउन्विहाणं विवागाणुसरणं विवागविचयं णाम तदियधम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ पयडिटिदिप्पदेसाणुभागभिण्णं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभागजणिय कम्मविवागं विचितेज्जो ।। ४१॥ एगाणेगभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदो रणसंकमबध मोक्खं च विचिणादी* ।। ४२ ॥ तिण्णं लोगाणं संठाण-पमाणाउयादिचितणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगोंके निमित्तसे कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्तसे जाति, जरा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं ; ऐसा चिन्तवन करना और उनसे अपायका चिन्तन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान हैं । इस विषयमें गाथायें पापका त्याग करनेवाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवोंके इहलोक और परलोकसे अपायका चिन्तवन करे ।। ३९ ।।। अथवा जिनमतको प्राप्त कर कल्याण करनेवाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है । अथवा जीवोंके जो शुभाशुभ भाव होते हैं उनसे अपायका चिन्तवन करता है ।। ४० ।। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके शुभाशुभ कर्मोके विपाकका चिन्तवन करना विपाकविचय नामका तीसरा धर्मध्यान है। इस विषयमें गाथायें ___ जो प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागोंमें विभक्त है, जो शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है तथा जो योग और अनुभाग अर्थात् कषायसे उत्पन्न हुआ है ऐसे कर्मके विपाकका चिन्तवन करे ।। ४१ ।। जीवोंको जो एक और अनेक भवमें पुण्य और पाप कर्मका फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्षका चिन्तवन करता है ।। ४२ ।। तीनों लोकोंके संस्थान, प्रमाण और आयु आदिका चिन्तवन करना संस्थानविचय नामका चौथा धर्म्यध्यान हैं । इस विषय में गाथायें * भग. १७११ मूला. ( पंचाचा ) २०३. ( तत्र चतुर्थचरणम् - जीवाण सुहे य असुहे ). @ मुद्रितप्रतौ 'एगाणेगमवगयं' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'बंध' इति पाठः । * भग. १७१३., मूला. (पंचाचा.) २०४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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