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________________ ( ७१ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा सुणिउणमणाइणिहणं भूदहिदं भूदभावणमणग्छ । अमिदमजिदं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ।। ३३ ।। ज्झाएज्जो णिरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । अणि उणजणदुण्णेयं णयभंगपमाणगमगहणं ॥३४ ।। एसा आणा। एदीए-आणाए पच्चक्खाणुमाणादिपमाणाणमगोयरत्थाणं जं ज्झाणं सो आणाविचओ णामज्झाणं । एत्थ गाहाओ तत्थ मइदुब्बलेण य तन्विज्जाइरियविरहदो* वा वि। णेयगहणत्तणेण य णाणावरणादिएणं च ।। ३५ ।। हेद्दाहरणासंभवे य सरि-सुठ्ठज्जाणबुज्झज्जो। सव्वणुमयमवितत्थं तहाविहं चितए मदिमं ॥ ३६ ।। अणुवगयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा । जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण ।। ३७ ।। पंचस्थिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ।। ३८ ।। जो सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगत्के जीवोंका हित करनेवाली हैं, जगत्के जीवों द्वारा सेवित है, अमूल्य है, अमित है, अजित है, महान् अर्थवाली है, महानुभाव हैं, महान् विषयवाली है, निरवद्य है, अनिपुण जनोंके लिये दुर्जेय है और नयभंगों तथा प्रमाणागमसे गहन है; ऐसी जगके प्रदीपस्वरूप जिन भगवान्की आज्ञाका ध्यान करना चाहिये ॥ ३३-३४॥ __यह आज्ञा है। इस आज्ञाके बलसे प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणागमके विषयभूत पदार्थों का जो ध्यान किया जाता है वह आज्ञाविचय नामका ध्यान है । इस विषयमें गाथायें मतिकी दुर्बलता होनेसे, अध्यात्म 'विद्याके जानकार आचार्योंका विरह होनेसे, ज्ञेयकी गहनता होनेसे, ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मकी तीव्रता होनेसे, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होनेसे नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थानमें मतिमान् ध्याता 'सर्वज्ञप्रतिपादित मत सत्य है ' ऐसा चिन्तवन करे ॥ ३५-३६ ।। यतः जगमें श्रेष्ठ जिन भगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवोंका भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं और उन्होंने राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त कर ली है। इसलिये वे अन्यथावादी नहीं हो सकते ॥ ३७॥ पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय. काल द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं उनका यह आज्ञाविचय ध्यानके द्वारा चिन्तवन करता है ।। ३८।। ®आ-ताप्रत्योः ‘णयभंगसमाणगमगमणं' इति पाठः। ॐ ताप्रती 'ज्झायण' इति पाठः -*- आ-ताप्रत्योः 'विरहिदो' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो: 'सठ्ठजण्ण' इति पाठः। ताप्रती 'सव्वण्ण. मयवितत्थ' इति पाठ: ।-अप्रतौ 'छज्जीवणिकाइए' इति पाठः । मला. (पंचाचा.) २०२. Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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