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________________ ३६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं कसायोदयअणुबंधकालस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो वा । कसायाणमुदयकालो अंतोमुहुत्तं, णोकसायस्स उदयकालो अणंतो, तेण णोकसाएहितो कसायाणं थोवत्तमस्थि त्ति सण्णाविवज्जासो किण्ण इच्छिदो ? ण, एवंविवक्खाभावादो। जं तं कसायवेयणीयं कम्मं तं सोलहविहं-- अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोहं अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं कोहसंजलणं माणसंजलणं मायासंजलणं लोभसंजलणं चेवि ॥ ९५ ॥ सम्मइंसण-चारित्ताणं विणासया कोह-माण-माया लोहा अणंतभवाणुबंधणसहावा अणंताणुबंधिणो णाम । अणतेसु भवेसु अणुबंधो जेसि ते वा अणंताणुबंधिणो भण्णंति । ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानमिति व्यत्पत्तेः अणुव्रतानामप्रत्याख्यानसंज्ञा। अपच्चक्खाणस्स आवारयं कम्मं अपच्चक्खाणावरणीयं । पच्चक्खाणं महत्वयाणि, तेसिमावारयं कम्मं पच्चक्खाणावरणीयं । तं चउन्विहं कोह-माण-माया लोहभेएण। सम्यक् शोभनं तत्पश्चात् कषायोंके उदयका विनाश होता है। अथवा नोकषायोंके उदयके अनुबन्धकालको देखते हुए कषायोंके उदयका अनुबन्धकाल अनन्तगुणा उपलब्ध होता हैं, इस कारण भी नोकषायोंकी अल्पता जानी जाती है। ___शंका-- कषायोंका उदयकाल अन्तर्मुहर्त है, परन्तु नोकषायोंका उदयकाल अनन्त है; इस कारण नोकषायोंकी अपेक्षा कषायोंमें ही स्तोपना है। इसीलिए इनकी उससे विपरीत संज्ञा क्यों नहीं स्वीकार की गई है ? ____समाधान-- नहीं, क्योंकि, इस प्रकारको यहां विवक्षा नहीं है । जो कषायवेदनीय कर्म है वह सोलह प्रकारका है- अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।९५॥ जो क्रोध, मान, माया और लोभ सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रका विनाश करते हैं तथा जो अनन्त भवके अनुबन्धन स्वभाववाले होते हैं वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं । अथवा, अनन्त भवोंमें जिनका अनुबन्ध चला जाता है वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं। 'ईषत् प्रत्याख्यानं अप्रत्याख्यानम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार अणुव्रतोंकी अप्रत्याख्यान संज्ञा है । अप्रत्याख्यानका आवरण करनेवाला कर्म अप्रत्याख्यानावरणीय कर्म है। प्रत्याख्यानका अर्थ महाव्रत है। उनका आवरण करनेवाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय है। वह क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारका है । जो 'सम्यक्' अर्थात् शोभन रूपसे 'ज्वलति' अर्थात् प्रकाशित होता है वह संज्वलनकषाय है। षट्. जी. चू. १. २३. अप्रतो धिणो णाम भणंति ' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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