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________________ ५, ४, २०. ) कम्माणुओगद्दारे समुदाणकम्मपरूवणा (४५ संसारत्थाणं बहूणं जीवाणं कधं तमिदि एयवयणणिद्देसो? ण, पओअकम्मसण्णिदजीवाणं जादिदुवारेण एयत्तं दठ्ठण एयवयणणिद्देसोववत्तीदो। कधं जीवाणं पओअकम्मववएसो? ण, पओअं करेदि त्ति पओअकम्मसद्दणिप्पत्तीए कत्तारकारए कोरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्तसिद्धीदो। जं तं समोदाणकम्मं णाम ।। १९॥ तस्स अत्थविवरणं कस्सामो तं अविहस्स वा सत्तविहस्स वा छविहस्स वा कम्मस्स समोदाणदाए गहणं पवत्तदि तं सव्वं समोदाणकम्मं णाम 1॥ २० ॥ समयाविरोधेन समवदीयते खंड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलाणं मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूवेण वा भेदो समोदाणद त्ति वुत्तं होदि । अढविहस्स सत्तविहस्स छव्विहस्स शंका- संसार में स्थित जीव बहत हैं। ऐसी अवस्थामें 'तं' इस प्रकार एक वचनका निर्देश कैसे किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रयोगकर्म संज्ञावाले जितने भी जीव हैं उन सबको जातिकी अपेक्षा एक मान कर एक वचनका निर्देश बन जाता है। शंका- जीवोंको प्रयोगकर्म संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, 'प्रयोगको करता है' इस व्युत्पत्तिके आधारसे प्रयोगकर्म शब्दकी सिद्धि कर्ता कारकमें करनेपर जीवोंके भी प्रयोगकर्म संज्ञा बन जाती है। विशेषार्थ- संसारी जीवोंके और सयोगिकेवलियोंके मन, वचन और कायके आलम्बनसे प्रति समय आत्मप्रदेशपरिस्पद होता रहता है । आगममें इस प्रकारके प्रदेशपरिस्पन्दको योग कहा जाता है। प्रकृतमें इसे ही प्रयोगकर्म शब्द द्वारा सम्बोधित किया गया है। किन्तु वीरसेन स्वामीके अभिप्रायानुसार इतना विशेषता है कि यहां जिन जीवोंके यह योग होता है वे प्रयोगकर्म शब्द द्वारा ग्रहण किये गये हैं। अब समवदानकर्मका अधिकार है ।। १९ ।। उसके अर्थका कथन करते हैं-- यतः सात प्रकारके, आठ प्रकारके और छह प्रकारके कर्मका भेदरूपसे ग्रहण होता है। अतः वह सब समवदानकर्म है ॥ २० ॥ ( समवदान शब्दमें सम् और अव उपसर्ग पूर्वक 'दाप् लवने' धातु है जिसका व्युत्पत्ति. लभ्य अर्थ है-)जो यथाविधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है । और समवदान हो समवदानता कहलाती है। कार्मण पुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायके निमित्तसे आठ कर्मरूप, सात कर्मरूप या छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आठ प्रकारके, सात प्रकारके और छह प्रकारके कर्मों का समवदान रूपसे अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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