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________________ ४४) छ खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, १६ तं तिविहं- मणपओअकम्मं वचिपओअकम्मं कायपओअकम्नं ॥ १६ ॥ जीवस्य मनसा सह प्रयोगः; वचसा सह प्रयोगः; कायेन सह प्रयोगश्चेति एवं पओओ तिविहो होदि। सो वि कमेण होदि, ण अक्कमेण); विरोहादो। तत्थ मणपओओ चउविहो सच्चासच्च-उहयाणुहयमणपओअभएण। तहाविह वचिपओओ वि चउविहो सच्चासच्च-उहयाणुहयवचिपओअभएण। कायपओओ सत्तविहो ओरालियादिकायपओअभएण। एदेसि पओआणं सामिभूदजीवपरूवगढ़मुत्तरसुतं भणदि तं संसारावत्थाणं वा जीवाणं सजोगिकेवलोणं वा ॥१७॥ तं तिविहं पओअकम्मं संसारावत्थाणं जीवाणं होदि त्ति उत्ते मिच्छाइट्रिप्पहडिखोणकसायंताणं सजोगत्तं सिद्धं, उवरिमाणं संसारावत्थत्ताभावादो। कुदो? संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिष्विति घातिकर्मकलापः संसारः। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्थाः छद्मस्थाः भवन्ति । एवं संते सजोगिकेवलीणं जोगाभावे पत्ते सजोगीणं च तिण्णि वि जोगा होति त्ति जाणावगळं पुध सजोगिगहणं कदं। तं सव्वं पओअकम्म णाम ।। १८ ॥ वह तीन प्रकारका है-मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म॥१६॥ जीवका मनके साथ प्रयोग, वचनके साथ प्रयोग और काय के साथ प्रयोग, इस प्रकार प्रयोग तीन प्रकारका है। उसमें भी वह क्रमसे ही होता है, अक्रमसे नहीं; क्योंकि, ऐसा माननेपर विरोध आता है। उसमें सत्य, असत्य, उभय और अनुभय मनःप्रयोगके भेदसे मनःप्रयोग चार प्रकारका है। उसी प्रकार सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेदसे वचनप्रयोग भी चार प्रकारका है। कायप्रयोग औदारिक आदि कायप्रयोगके भेदसे सात प्रकारका है । ___ अब इन प्रयोगोंके कौन जीव स्वामी हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं- . .. वह संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके और सयोगिकेवलियोंके होता है ।। १७॥ तीन प्रकारका प्रयोगकर्म संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके होता है, इस कथनसे मिथ्यादष्टि गणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके जीव सयोगी सिद्ध होते हैं; क्योंकि आगेके जीवोंके संसार अवस्था नहीं पाई जाती। कारण कि जिस घातिकर्मसमूहके कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं वह घातिकर्मसमूह संसार है । और इसमें रहनेवाले जीव संसारस्थ अर्थात् छद्मस्थ हैं। ऐसी अवस्था में सयोगिकेवलियोंके योगों का अभाव प्राप्त होता है । अतः सयोगियोंके भी तीनों ही योग हीते हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिये 'सयोगी' पदका अलगसे ग्रहण किया है। वह सब प्रयोग कर्म है ॥ १८॥ लताप्रतौ 'कमेण जो होदूण अक्कमेण' इति पाठ । *ताप्रतौ 'वा' इत्येतत्पदं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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