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________________ २४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ३७ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा* ॥ ३७॥ एदे पंच वि ओग्गहस्स पज्जायसहा । अवग्रह्मते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः । अपनीयते खण्ड्यते परिच्छिद्यते अन्येभ्य अर्थः अनेनेति अवदानम् । स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति अनध्यवसायमित्यवग्रहः सानम । अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोत्पत्तये इत्यवग्रहः अवलम्बना । मेध्यति परिछिनत्ति. अर्थमनया इति मेधा । संपहि ईहाए एय?परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि ईहा ऊहा अपोहा. मग्गणा गवसणा मोमासा ॥ ३८ ॥ उत्पन्नसंशयविनाशाय ईहते चेष्टते अनया बुद्धया इति ईहा । अवगृहीतार्थस्य अनधिगतविशेषः उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा। अपोह्यते संशयनिबन्धनविकल्पः अनया इति अपोहा। अवगहीतार्थविशेषो मग्यते अन्विष्यते अनया इति मार्गणा। गवेष्यते अनया इति गवेषणा। मीमांस्यते विचार्यते अवगृहीतो अर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा। अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रहके पर्यायवाची नाम है ।३७। __ये पांचो ही अवग्रहके पर्याय शब्द हैं। जिसके द्वारा घटादि पदार्थ · अवगृह्यते' अर्थात जाने जाते हैं वह अवग्रह है। जिसके द्वारा ' अवदीयते खण्डयते ' अर्थात् अन्य पदार्थोस अलग करके विवक्षित अर्थ जाना जाता है वह अवग्रहका अन्य नाम अवदान है । जो अनध्यवसायको 'स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति' अर्थात् छेदता है नष्ट करता है वह अवग्रहका तीसरा नाम सान है । जो अपनी उत्पत्ति के लिये इन्द्रियादिकका अवलम्बन लेता है वह अवग्रहका चौथा नाम अवलम्बना है। जिसके द्वारा पदार्थ · मेध्यति' अर्थात् जाना जाता है वह अवग्रहका पांचवां नाम मेधा है । अब ईहाके एकार्थों का कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये ईहाके पर्याय नाम है ।३८। जिस बुद्धिके द्वारा उत्पन्न हुए संशयका नाश करने के लियं 'ईहते ' अर्थात् चेष्टा करते हैं वह ईहा है । जिसके द्वारा अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गय अर्थके नहीं जाने गये विशेष की 'ऊह्मते ' अर्थात् तर्कणा करते हैं वह ऊहा है। जिसके द्वारा संशयके कारणभूत विकल्पका 'अपोह्मते' अर्थात् निराकरण किया जाता है वह अपोहा है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये अर्थके विशेषके जिसके द्वारा मार्गण अर्थात् अन्वेषण किया जाता है वह मार्गणा है। जिसके द्वारा गवेषणा की जाती है वह गवेषणा है । अवग्रहके द्वारा ग्रहण किया गया अर्थ विशेषरूपसे जिसके *तस्स णं इमे एगदिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति । तं जहा- ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंवणया मेहा [ से त्तं उग्गहे । न. सू. २९. काप्रती 'अवधानं ' इति पाठः 1 ४ताप्रती परिच्छिन्नत्ति ' इति पाठः । . अ-आ-काप्रतिषु । पूहा' इति पाठः । ... तीसे णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंचनामधिज्जा भवंति । तं जहा- आभोगणया मग्गणया गवेसणया चिता विमंसा । से तं ईहा 1 नं. सू ३२. ईहा अपोह वीमसा मग्गणा य गवेसणा। सन्ना सई मई पन्ना सव्व आभिणिबोहियंा नं. सु. गाथा ६. वि. भा. ३९६. ताप्रती ' अनधिगतिविशेषः 'इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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